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रुचिकर है, भाव-साम्य का प्राधार भी। मैने पूज्य मुनि श्री विद्यानन्द जी के पास सड़ के महाकवि पम्प की 'पम्परामायण' देखी थी। एक दिन, मुनिश्री ने उसके प्रसिद्ध स्थलों का रसास्वादन कराया, सभी भाव-विभोर होगये । ऐसा अनुभूति मय था वह काव्य । मुनिश्री ने २५ रामायरणों का तुलनात्मक अध्ययन किया है। उनकी दृष्टि में तुलसी एक उदार कवि थे । उन्होंने कहीं से भी 'पउमचरिउ' को अवश्य सुना या पढ़ा होगा। फिर भी, तुलसी में जैसी तन्मयता है, 'पउमचरिउ' में नहीं । तुलसी भक्त थे, उनके दिल का रेशा रेशा राम-मय हो गया था । ऐसी तल्लीनता हिन्दी के किसी कवि में देखने को नहीं मिली। इस क्षेत्र में तुलसी अनूठे थे, अदभुत और अनुपम । वह उनकी अपनी चीज है । न वाल्मीकि को मिली और न स्वयम्भू को हो सकता है कि कन्नड़ के कवि पम्प में वह बात हो । उसके कतिपय स्थलों से मुझे ऐसा लगा। वैसे, पूरे अध्ययन के बाद ही प्रामाणिक रूप से कुछ कहा जा सकता है ।
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लालचन्द लब्धोदय का 'पद्मिनी चरित' मैंने देखा है। उसकी रचना वि० सं० १७०७ चैत्र शुक्ला १५, शनिवार के दिन पूर्ण हुई थी। कुछ घटनाक्रम के अतिरिक्त यह पूरी कथा जायसी के पद्मावत से मिलती-जुलती है । इसको भी काल्पनिक और ऐतिहासिक ऐसे दो भागों में बांटा जा सकता है । काल्पनिक कथानक में हीरामन तोते का प्रयोग नहीं हुआ है । रतनसेन ने अन्य उपायों से पद्मिनी के सौन्दर्य को सुना है । रतनसेन की रानी का नाम भी नागमती न होकर प्रभावती है । यहाँ ऐसा नहीं है कि पद्मिनी का सौन्दर्य मुनते ही वह वियोगी बन निकल पड़ा । बादशाह अलाउद्दीन को कंकरण दिखाकर कंकणवाली की प्रगाध रूप - राशि का अनुमान भी यहाँ नहीं करवाया गया है। एक बार, राजा ने अच्छा भोजन न बनने की शिकायत की, जिस पर प्रभावती ने क्रोधित होकर पद्मिनी नारी के साथ विवाह करने की बात कही, जो स्वादिष्ट भोजन बनाने में निपुण हुग्रा करती हैं। राजा ने भी ऐसी नारी को प्राप्त कर प्रभावती के गुमान को नष्ट करने की प्रतिज्ञा की । वह श्रौघड़नाथ सिद्ध की कृपा से भयानक समुद्रों को पार करता हुआ सिहल में पहुँचा, और वहाँ के राजा को अपनी वीरता से प्रसन्न कर उसकी पुत्री पद्मावती के साथ विवाह कर, छह माह के बाद चितौड़गढ़ में वापस आगया । इसी भांति अलाउद्दीन पद्मावती का नख-शिख वर्णन सुन, उसे प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हुन ।
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