Book Title: Jain Jati Nirnay Prathamank Athva Mahajanvansh Muktavaliki Samalochana
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala
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प्रस्तावना.
प्यारे सजनगण !
कहनेकी आवश्यक्ता नहीं है कि इतिहास का अन्धेरामें इस पवित्र भारत भूमिपर एसा भी जमाना गुजर चुका था कि अज्ञ चारण भाट भोजकोंकी मनःकल्पित कथा कहानियों गसा और ख्यात्तों को इतिहास का रूपमें उच्चस्थान मील चूका था. व बडे बडे राजा महाराजाओंकी तवारिखोमें भी उन कल्पित ख्यातों को सुवर्ण अक्षरों से अंकितकर उनपर ईश्वरीय वाक्योंकी माफीक पूर्ण विश्वास कीया जाता था. इतनाही नहीं बल्के महाशय टोंड साव जैसे खोजी इनिहासकारोंने भी कीतनीक बातों मे धोखा खा अपनी कीताबों में भी उनकल्पित वातों को स्थान दे दीया था.
__यह ही हाल हमारी ओसवाल जाति के बागमें हुवा | भाट भोजकोंने अनेक कल्पित ख्यातो वंसावलियों बनाके अज्ञ ओसवालों को धोखा दीया है जिस जातियोंके साथ भाईपा का सबन्ध नहीं था वहां तो भाईपा बना दीया जैसे सुराणा सांखलों के साथ सांढसीया लोका कुच्छभी संबन्ध न होने पर भी भाईपा लिख दीया और बाफणा जाघडों के भाईपा होने पर भी आपसमे सगपण करवा दीया इतनी ही गडबड कुलदेवियों और प्रतिबोधित श्राचार्यों के बारेमें कर ही है इस पर भी हमारे ओसवाल भाईयों को परवाही क्यों है ? वह तो उन भाटों की ख्यातोकों एक ईश्वरीय वचन ही मान बेठे है कीतनेक लोक तो अपने महान् उपकारी मांस-मदिरादि दुर्व्यसन छोडाने
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