Book Title: Jain Jati Nirnay Prathamank Athva Mahajanvansh Muktavaliki Samalochana
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala
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गेहलडा.
(५७) रडमलजी जोधाजी चितोड गये उनकी नियत चितोडका राज छीन लेनेकी थी जिसका दंड रूपमें रडमलजी मारा गया और राव जोधाजी १२ वर्ष तक ईधर उधर भमते म्है मंडौर बारह बर्ष चितोड के हाथोमे रही रावरडमल के मरने के बाद तो राणा मोकलने राज कीया था उसके उत्तराधिकारी राणा कुंभा हुवा था. कहां तो गणा कुंभा कहां बछराज की अकल ! दर असल बोत्थरा कोरन्ट गच्छाचार्य नन्नसूरि प्रतिबोधित है बोत्थरो का कोरंटगच्छ है उत्पति और वंसावलि विस्तारपूर्वक देखो " जैन जाति महोदय" नाम की कीताब । यतिजी की असत्य लिखने कि साहसिकता को........ दीया विगर रहा नहीं जाता है कि जिसने अपने भव बिगडने की परवा न करते हुवे भी बोत्थरों को खरतग बनानेमें ईतना प्रयत्न
कीया है. (२३) गेहलरा.
इस जातिके बारामें का० लि. वि. स. १५१२में खीची गीरधर को दादाजीने वासचूर्ण दीया गीरधरने एक कुंभार के ईटां के कजावामें ५००० इंटोपर डाल दिया की वह सब ईटो सोनाकी हो गई ** धन खरचनेमे गेहला होनेसे गेहलडे कहलाये हैं.
__समा० अव्वलतो गीरधरका ग्रामका ही पत्ता नहीं था स्यात् इटांका कजावा जंगलमे ही होगा, गेहलडोने एकाद पर्वतपर चुर्ण डाल दीया होता तो सब दुनियों गेहलडा बन जाति या तो गीरधरमें इतनी उदारता न होगी या दादाजीने चुरण देनेमें संकोचता की होगी. दर असल गेहलडा सुराणांगच्छोपासक श्रावक है । तथा मलधार गच्छवाले भी वंसावलियों लिखते है ।
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