Book Title: Jain Jati Nirnay Prathamank Athva Mahajanvansh Muktavaliki Samalochana
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 97
________________ अन्तिम निवेदन. ( ८९) को दुर्गतिका रस्ता छोडा के सुगतिकि सडकपर लगाया था उन पूज्यवरोंका नाम तकको भुला देना क्या यह सरासर अन्याय नहीं है ? अगर अन्याय है तो उसे न्याय देना मनुष्यमात्रका कर्तव्य है। अब हम हमारे पाठकों को यह कहना चाहते है कि कोइ भी श्रावक यथारूची कीसी भी गच्छकी क्रिया करता हो उससे हमारा किंचत् भी विरोध नहीं है हमारा विरोध तो खास उससे है कि इतिहासके खिलाप लेख लिख कर जैन लेखकोंकि हांसी कराता है इस वास्ते ही जनताको यथार्थ सरूप बतलानेको यह मेरा प्रयत्न है. इसको पढके हमारे ओसवाल सजन अपनी अपनी जातिका निर्णय कर अपना वंशवृक्ष--खुर्शी नाम शीघ्रतासे तय्यार करेंगें। अन्तमें यह निवेदन है कि इस दोनों अंक लिखनेमें मेने बहुत छानबीन करी है तथापि मेरे जैसे अल्पज्ञ से त्रुटियों रहना स्वाभाविक वात है इस नियमानुसार अगर मेरे लिखने में कोई त्रुटियों हो उसे सुधारके पढे ओर मुझे सूचना देनेकी कृपा करे तांके द्वितीयावृत्तिमे सुधारादी जावे शम् ॐ शान्ति शान्ति शान्ति eGESEAREIDOESO समाप्तम् SRIDEREDGeo Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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