Book Title: Jain Jati Nirnay Prathamank Athva Mahajanvansh Muktavaliki Samalochana
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala
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इस किताब के पढने से आप को यह रोशन हो जायगा कि पूर्व जमाना में जैन जाति का कितना गौरव और कितनी विशाल संख्या थी. वह कीस कीस कारणोंसे आज गरी दशा को भोग रही है और अब कीन कीन उपायों से पुनः गया गौरवको प्राप्त कर सके. वह उपाय साध्य है या असाध्य ? अगर साध्य है तो जैनकोम आंखो मिंच क्यों अंधारा कर बेठी है वह सब स्पष्टता से बतलाये गये हे और भी कोइ उपयोगी विषय इस किताब में लिखा जावेगा.
ओसवालो जागो ! और आपका सच्चा इतिहास
जनताके सामने रखो !
इस किताब कि समाप्ति के समय मुझे एक " जाति अन्वेषण प्रथम भाग " नाम कि किताब मीली जिस्का लेखक फूलेरा निवासी. पं. छोटालाल शर्मा है इस्वीसन १९१४ में छपी है उस किताब के पृष्ट १३२ से १३६ तक ओसवालों के बारामे उल्लेख करता हुवा लेखकने लिखा है किओसवाल, डोसी-शूद्रपापीष्टकुकर्मिजातियोसे बने हैं। ... , . छाजेड-छाज वेचनेवालि जातियोंसे बने है ,, संघी-सींग वचनेवालि जातियोंसे बने है
चंडालिया-भंगीयों--चंडालोसे बने है बलाई-बांभीयोसे बने है, तेलीया-तेलीयोंसे बने है...
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