Book Title: Jain Jati Nirnay Prathamank Athva Mahajanvansh Muktavaliki Samalochana
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala

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Page 85
________________ लेरखा. रत्नप्रभसूरि शीयोंके सिवाय अन्य स्थानोंमें ओसवाल. बनाये कमलागच्छ. हुए (१) मूलगौत्र चरड – चरड़, कांकरीया, सानी, कीस्तुरीया, बोहरा, अनुपत्ता, पारणिया, संघवी वरसांणि. (२) मूलगौत्र सुघड - सुघड, संडासिया, करणा, तुला, बोहरादि. (३) मूलगौत्र लुंग – लुंग, चंडालिया, भाखरीया ( ७७ ) रांणोत् । (४) मूलगौत्र गटिया - गटिया, टींबाणी, काजलीया आचार्य रत्नप्रभसूरके बाद उनके परम्परामें आचार्योंने औरभी क्षत्रीयोंको जैन बनाया था जैसे- (१) मूलगौत्र आर्य - लुणावत संघवी सिन्धुडा | (२) मूलगौत्र काग - (३) मूलगौत्र गरुड- - धाडावत चापड | (४) मूलगौत्र सालेचा -- बोहरा, जोधावत्, बनावत्, गान्धी कोटारी पाटणीया चोधरी । (५) मूलगोत्र वागरेचा - सोनी संधि जालोरा । (६) मूलगौत्र - कुंकुंम चोपडा, धूपिया, कुंकडा, गणधर चोपडा, जावलीया, वटवटा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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