Book Title: Jain Jati Nirnay Prathamank Athva Mahajanvansh Muktavaliki Samalochana
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala
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अठारा गोत्र. तीसरा आत्मप्रबोध की भाषा कर्ता गणी क्षमाकल्याणजी लिखते है कि १०८० में जिनेश्वरसूरि जाबलीपुर में कर्चुरपुरीया गच्छ- - वालों के साथ शास्त्रार्थ कीया चोथा जिनेश्वरसूरि अभयदेवसूरिने अनेक ग्रन्थ लिखा है उन्होंने कहांपर भी अपने नाम के साथ खरतर शब्द नहीं लिखा है पांचवा खरतरगच्छीय पं. साधुरत्न गणीने सार्ध शतक की बृहत्वृत्ति में लिखा है कि प्राचार्य जिनदत्तसूरि को कोइ भी प्रश्नादिक पूछते थे तब सूरिजी बडी मगरूरी और खराई के साथ उत्तर दीया करते थे जबसे लोक खरतरा २ कहने लगा. इत्यादि प्रमाणोंसे यतियों का लिखना बिलकुल मिथ्या है दर असल चौरासी चैत्यों का मालिक वर्धमानसूरि का शिष्य जिनेश्वर सूरि उपकेश गच्छाचार्य देवगुप्तसूरि के पास ज्ञानाभ्यास कर आप का उपदेश से चैत्यवास का त्याग कर क्रिया उद्धार कीया था जिस उपकार का बदलामें यतियोंने यह अपकार लिखमारा है विशेष खुलासा " जैन जाति महोदय" नाम की किताब में लिखा गया है.
पूर्व-एक पंचप्रतिक्रमण की किताब में यतिजीने लिखा है कि रत्नप्रभसूरि स्थापित १८ गोत्रों से एक हटीले वैद वर्ज के शेष १७ गोत्र अपना गच्छ को चैत्यवासी समज खरतर गच्छ में आ गया बाद वेदों से भी प्राधा गौत्र खरतर को मानने लग गया । - उत्त० यतिजी ! वि. सं. १०८० में करीबन १२ क्रोड जैन . संख्या थी जिस्में विशेष ओसवाल उपकेशगच्छीय ही श्रावक थे कारण
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