Book Title: Jain Jati Nirnay Prathamank Athva Mahajanvansh Muktavaliki Samalochana
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala
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आर्य लुणावत
( ३५ ) कीला छीन लीया । बाद क्रमशः मुलतान देपाल सिखर कश्मीर सेम शिवस्थानादि सिन्धके वडे वडे नगरो पर मुसलमानाका राज होगया था. दाहीर राजाका मुख्य प्रधान आर्य गौत्री लाखण और वीरधवल था. जिसमे लाखणतो संग्राममे मारागया और वीरधवल अपना कुटम्ब सहीत कन्नोज आगया था इससे यह सिद्ध होता है कि वि. सं. ७६८ के बाद सिंघमें १००० ग्राम का मालक हिन्दुराजा था ही नहीं और ७६८ में तो आर्यगौत्री मोजुद था तो फीर यतियों का लिखना १९९८ मे आर्य हुआ कोन विद्वान स्वीकार करेगा ? आगे दादाजी के समय सिंधके सार्वभौम्य राजाकी सावलि देखिये
मुस्तजहरवल्लहाका राज वि.स. १९५१
मुस्तरसीद बल्लहाका
११७५
रसीद वल्लहाका
११६१
मुतकी वल्लहाका
११६२
उसका नामनिशान तक
१२१७ मुस्ता जिन्दका भी नहीं मीलता है दर असल वि. सं. ६८४ में पंजाब में विदेशीयों का भय से भागता हुवा भाटी गोसल रावको आचार्य देवगुप्तसूरीने प्रतिबोध दे आर्य ita स्थापन कीया था " दादाजी के जन्म पहिले तो आर्य गौत्र में अनेक नामीपुरुष हो चुके थे जैसे आर्य लखमसी राजसी धनदत्त पासदत्त टोटासादि जिनोंके पुराणें कवित भी मील सक्ते है देखो
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दादाजी ने ११६८ में हजार ग्रामके राजा को प्रतिबोध दीया लिखा है
पर सिंध के राजाओं में
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