Book Title: Jain Jati Nirnay Prathamank Athva Mahajanvansh Muktavaliki Samalochana
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Ratnaprabhakar Gyanpushpmala
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अठारा गोत्र. यादृशा गता तादृशा आगताः मुनीश्वरा पात्राणि प्रतिलेप्य मासं यावत् संतोषेण स्थिताः बाद सूरिजी विहार करने लगे तब देवीने विनती करी इसपर ३५ साधु विशेष तपश्चर्या के करनेवाले तो सूरीजीके पास चतुर्मास कीया शेष ४६५ मुनि विहार कर अन्य स्थान चातुर्मास कीया. “ गुरुः पंचत्रिंशत् मुनिभिः सहस्थिताः" . यतिजी स्वयं गृहस्थों की औषधि कर गोचरी लाते है वह आक्षेप चौदह पूर्वधारी आचार्यपर लगाके अपनी एबको छीपानी चाहते है।
पूर्व-रत्नप्रभसूरीने रूइ का सांप बनाके राजा के पुत्र को कटाया जिनसे सब नगरी में महान दुःख हुवा फीर विषोत्तार जैन बनाये.
उत्त० यह भी गलत है चौदहा पूर्वधर एसे कार्य क्यों करे? नगरलोको को दुःखी क्या बनावे ? दर असल यतिजीने जैसा भाटों से सुना वैसाही लिखमारा है। न तो रूइ का सांप सूरिजीने बनाया न राजाके पुत्र को सांप काटा था। देखिये " मंत्रीश्वर उहडसुतं भुजंगेन दृष्टाः" यतिजी लिखते है कि सांप से विष खेंचाया था यह भी गल्त है " गुरुणा प्रासु जलमानीय चरणौ प्रक्षाल्य तस्य छंटितं सहसात्कारणे सजोविभुव"
___ पूर्व-उपलदे राजा जैनी भया सुनके भिन्नमाल का राजा भी जैनी भया और ओशीयो तथा भिन्नमाल में एक साथ मन्दिर की प्रतिष्ठा रत्नप्रभसूरिने कराई.
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