Book Title: Gyandhara 03
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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कर्म-सिद्धांत के अनुसार
वैश्विक व्यवस्था
(एम.ए., पीएच.डी. तत्त्वज्ञान के
डो. उत्पला मोदी - मुंबई । प्राध्यापक, विश्व धर्म के अभ्यासी, जैनोलोजी के प्राध्यापक, अनेक परिसंवादमें हिस्सा लिया है।
कर्म का सामान्य अर्थ क्रिया/प्रवृत्ति है । कर्म अर्थात् कुछ करना । मन, वचन एवं शरीर के द्वारा की जाने वाली सम्पूर्ण क्रिया/प्रवृत्ति को कर्म कहा जा सकता है ।
पुद्गल की तेईस प्रकार की वर्गणाओं में एक कार्मण वर्गणा है । कार्मण वर्गणा आत्मा की अच्छी-बूरी प्रवृत्ति के निमित्त से आकृष्ट होकर आत्मा के साथ सम्पृक्त हो जाती है । आत्मा से सम्बद्ध इन्हीं वर्गणाओं को कर्म कहते है । ये कर्म आत्मा की क्षमताओं पर आवरण डालते है, उन्हें अवरुद्ध करते है तथा आत्मा को परतन्त्र बनाकर छोटे दुःखों का पात्र बनाते हैं ।
जो संसारी हो और कर्मग्रस्त न हो ऐसा एक भी जीव नहीं है, और न ही हो सकता है । संसारी होना यही सिद्ध करता है कि किसी न किसी प्रकार के कर्मों से बंधनग्रस्त है ही । जिस दिन संसार से मुक्त हो जायेगा, संसार का बंधन ही नहीं रहेगा, बस उसी दिन जीव कर्म-जंजीर से भी सदा के लिए मुक्त हो जायेगा । जिस दिन कर्म-बंधन से मुक्त होगा उस दिन संसार के बंधन से मुक्त होगा । क्योंकि संसार का आधार कर्मों पर ही है । कर्मजन्य संसार और पुनः संसारजन्य कर्म, इस तरह दोनों ही एक-दूसरे के कार्यकारण बनकर जन्यजनक होते है ! कर्म से संसार बनता है । संसार में पुनः कर्म बंधते ही जाते है । फिर संसार बढ़ता ही जाता है और फिर कर्मों का बंधन भी बंधता ही जाता है। उसी तरह कर्म द्वारा संसार
और फिर संसार द्वारा कर्म, यह क्रम अनन्त काल तक चलता ही रहता है। प्रश्न यह है कि क्या हमे कर्मचक्र से छुटकारा मिल सकता है ? जरूर नये कर्म बाँधने ही बंध कर दिये जाय और साथ ही भूतकाल जानधारा-3 १०१ मन साहित्य FIGEN-3)
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