Book Title: Gyandhara 03
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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जैनदर्शन में मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति को योग कहते है । इससे कर्म का आकर्षण होता है । उसे द्रव्यकर्म कहा जाता है । द्रव्यकर्म के ज्ञानावरणीय आदि अनेक भेद - प्रभेद है ।
चार गति रूप यह संसार है जिसमें जीवों का परिभ्रमण सतत होता रहता है । संसारी जीव अपने कर्म के अनुसार चारों गति में घूमता रहता है । अतः संसारी जीव का लक्षण करते हुए पू. हरिभद्रसूरि महाराज ने 'शास्त्रवार्ता समुच्चय' ग्रंथ मे कहा
यः कर्ता कर्मभेदानां भोक्ता कर्म बलस्य च / संसर्ता परिनिर्वाण सावात्मा नान्यलक्षण: //
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जो कर्म का कर्ता है और किये हुए कर्म के फल को भोगनेवाला है, संसार में सतत जो घूमता रहता है, वह जीव है । यही आत्मा का लक्षण है, 'सृ' - गति धातु से संसार शब्द निष्पन्न हुआ है, अर्थात् सतत गतिशील जो है वह संसार है । जन्म-मरण के चक्र से छूटना ही मोक्ष है ।
समस्त संसार का स्वरूप सेंकडों प्रकार की विचित्रताओं, विविधताओं एवं विषमताओं से भरा पड़ा है । इसका कारण कर्म है । यदि कर्म न होता तो यह दिखाई पड़ती विचित्रता भी नहीं होती । आप देखेंगे कि संसार में कोई सुखी है तो कोई दुःखी, कोई राजा है तो कोई रंक, कोई अमीर है तो कोई गरीब, कोई बुद्धिमान चतुर है तो कोई बुद्ध-मूर्ख है । कोई साक्षर - विद्वान है तो कोई निरक्षर, कोई रोगी है तो कोई नीरोगी आदि बहुत विचित्रता देखने को मिलती है, वह सभी अपने अपने कर्मबंध का नतीजा है । यह संसार की कैसी विचित्रता है !
जैनदर्शन के अनुसार कृत कर्मों का फल भोग किसी-नकिसी रूप में अवश्य प्राप्त होता है । 'कडाण कम्माण णत्थि मोक्खो' । जो कर्म किये है उनका फल भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता । किन्तु कर्म की अवस्थाओं में समय, शक्ति, रस आदि के विपाक को कम, अधिक एवं परिवर्तन भी किया जा सकता है । जैन के अनुसार कुछ कर्म नियत विपाकी होते है, कुछ अनियत विपाकी
ज्ञानधारा-3
જૈન સાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૩
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