Book Title: Gyandhara 03
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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(२) उन्हें हमे अपनी परंपराओं पूजा, भक्ति आदि को सिखाना होगा । हमें यहाँ क्रियायें भी सिखानी है, साथ ही उन क्रियों के पीछे छिपे हुए ज्ञान, विज्ञान को भी समझाना होगा । भगवान को किया गया नमस्कार या पूजा हमें विनय के पाठ पढ़ाते, तभी क्रिया फलवती होगी । हमारी प्रत्येक धर्मक्रिया हमारे मन में शांति, ज्ञान की वृद्धि यह आवश्यक है । हम क्रियाओं में ही बंध न जायें इसका भी ध्यान रखना होगा । साथ ही हम किसी संप्रदाय विशेष की क्रियाओं के संकुचित दायरे में न फँस जाये इसका भी ध्यान रखना होगा । क्रिया वही उत्तम है जो रूढ़ियों में न बांध दे । क्रिया करने से हमें कर्तव्य का बोध होता है ।
(३) धर्म के तत्त्वों को समझाने के लिए हमें वर्तमान विज्ञान के सिद्धांतों के साथ उनकी तुलना भी जाननी होगी । उदाहरण के लिए हम देखें तो जैन धर्म पूरे का पूरा मनोवैज्ञानिक धर्म है । वर्तमान युग मानसिक तनाव से ग्रस्त है । ऐसे समय यह धार्मिक ज्ञान ही हमें मानसिक तनाव से मुक्त कर सकता है । धर्म वह रसायनशास्त्र है, जिसमें परिस्थिति और परिवेश के कारण निरंतर भाव परिवर्तन होते रहते है । भाव - परिवर्तनों के साथ हमारी क्रियायें और व्यवहार होते हैं । धार्मिक शिक्षा तो पूरा भौतिक शास्त्र का पिटारा है । जब हम गुणस्थानों की चर्चा करते हैं, तब विज्ञान का गति का नियम, गुरुत्वाकर्षण के नियम स्वयं दृष्टव्य होने लगते हैं । यदि हम धार्मिक शिक्षा के नियमों के साथ इस नियमों की चर्चा करें तो हमारा वैज्ञानिक परिवेश स्पष्ट होगा और धर्म के सिद्धांतो के प्रति रूचि बढ़ेगी ।
(४) धार्मिक शिक्षण की रूपरेखा में यह ध्यान रखना होगा कि उससे हमारी जीवन-शैली सरल बने । हम हिंसात्मक समस्त प्रवृत्तियों से बचते हुए मांसाहार आदि का पूर्ण त्याग करें । क्योंकि मांसाहार या कंदमूल आदि भोजन हमारे चित्त में तामसीवृत्ति को पनपाते हैं । हममें क्रोध की मात्रा बढ़ती है जिससे हम अनेक हिंसात्मक अकरणीय कार्य कर बैठते हैं । जिससे मन में विकृतियाँ जन्म लेती हैं । परस्पर के व्यवहार में कटुता आती है और समाज का संतुलन बिगड़ता है । इसलिए हमें सर्वप्रथम भक्ष्याभक्ष्य का ज्ञान मात्र धार्मिक पुण्य-पाप या स्वर्ग-नर्क के परिप्रेक्ष्य में न देकर उसे शरीर विज्ञान, जीव विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में देना चाहिए । यदि हम अहिंसक भोजन १४९ =
ज्ञानधारा-3
જૈન સાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૩