Book Title: Gyandhara 03
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
View full book text
________________
पति बुला रहा है, दूसरी ओर भाई । वह तो दहलीज पर खड़ी है... कहाँ जाये ? वर्तमान समय ऐसी ही दुविधा का समय है । विज्ञान के साथ आकाश में उड़ना है, पर धरती न छूटे इसका भी ध्यान रखना है ।
ऐसे प्रवाही वर्तमान में धार्मिक शिक्षण की क्या उपयोगिता है ? इस पर विचार करना है । एक प्रश्न उठ सकता है कि धार्मिक शिक्षण क्यों ? तो उत्तर तलाशने के लिए हमें पुनः अतीत के संस्कारित शिक्षण को स्मरण करना होगा । धार्मिक शिक्षण अर्थात् संस्कारों का शिक्षण, समाज का शिक्षण, करुणा-दया-क्षमा का शिक्षण । एक तथ्य निर्विवाद सत्य है कि हम भौतिक सुख सुविधाओं में कितना भी ऊँचे पहुँच जाये - पर उससे मन की शांति प्राप्त नहीं होती । उल्टे वह वैसा ही होता है मानों अग्नि को घी से बुझाने का उपक्रम करना । जब कि धार्मिक शिक्षण ही शीतल जल का काम करते हुए वासनाओं-इच्छाओं का शमन करता है। ___अब थोड़ा जैन धर्म की शिक्षा पर भी विचार करायें । जैन धर्म अर्थात् संयम का धर्म । प्राणीमात्र के कल्याण का धर्म । जिओं
और जीने की सुविधा देने का धर्म । भगवान ऋषभदेव से भ. महावीर तक के तीर्थंकरों ने जो जीवन जीने की कला सिखाई या यों कहें जीवन जीने का जो विज्ञान सिखाया, वह आज भी उतना ही उपयोगी व सार्थक हैं । जैन धर्म जो श्रमण धर्म के नाम से जाना जाता है - जिसमें श्रम की विशेष महत्ता है । जैन धर्म ने मनुष्य को स्वावलंबी बनाने की शिक्षा दी । कर्म को प्रधान माना और भाग्य की अंधी मान्यताओं से मुक्त कराया। जैन धर्म ने मनुष्य के शरीर के साथ उसके मन की चिंता की । यदि मन स्वस्थ होगा तो सभी कार्य उत्तम हो सकेंगे । जैन धर्म ने मात्र अपनी ही चिंता नहीं की अपितु विश्व के एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों की चिंता की । अहिंसा को नींव बनाया और उस पर पूरे धर्म का महल रचाया । जैन धर्म के १२ व्रतों में संपूर्ण संयमित जीवन जीने का मार्ग प्रशस्त हैं उनमें ५ व्रत जीवन की सांगोपांगता के प्रतीक हैं । इनमें अहिंसा-सत्य-अस्तेयब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह । इससे साधु को पूर्ण रूपेण और गृहस्थ को अणु अर्थात् एकदेशीय पालन का विधान है । जैन धर्म ने अहिंसा को मात्र प्राणीवध तक की सीमित नहीं रखा अपित किसीके मन को भी कष्ट देने में हिंसा को कारणभूत माना है । अहिंसा का पूर्ण पालन करने (ज्ञानधारा-3 म म्म १४७
न साहित्य ज्ञाना-3)