Book Title: Gyandhara 03
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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(६) अपकर्षण : पूर्वबद्ध कर्मों के स्थिति और अनुभाग के घटने को अपकर्षण कहते हैं । इस प्रक्रिया से कर्मों की कालमर्यादा और तीव्रता को कम किया जा सकता है ।
कर्मबंधन के बाद बंधे हुए कर्मों में ये दोनों ही क्रियाएँ होती हैं । अशुभ कर्मों का बंध करनेवाला जीव यदि शुभभाव करता है तो पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग अर्थात् समयमर्यादा
और फल की तीव्रता उसके प्रभाव से कम हो जाती है । यदि अशुभ कर्म का बंध करने के बाद और भी अधिक कलुषित परिणाम होते है तो उस अशुभ-भाव के प्रभाव से उनके स्थिति और अनुभाग में वृद्धि भी हो जाती है । इस प्रकार इस उत्कर्षण और अपकर्षण के कारण कोई कर्म शीघ्र फल देते हैं तथा कुछ विलम्ब से । किसीका कर्मफल तीव्र होता है तथा किसीका मंद ।
(७) संक्रमण : संक्रमण का अर्थ है परिवर्तन । एक कर्म के अनेक अवान्तर/उपभेद होते हैं । जैन कर्म-सिद्धांत के अनुसार कर्म का एक भेद अपने सजातीय दूसरे भेद में बदल सकता है, अवान्तर प्रकृतियोंका यह अदल-बदल संक्रमण कहलाता है । संक्रमण में आत्मा नवीन बंध करते समय पूर्वबद्ध कर्मो का रूपान्तरण करता है ।
(८) उपशम : उदय में आ रहे कर्मों के फल देने की शक्ति को कुछ समय के लिए दबा देना, अथवा कालविशेष के लिए उन्हें फल देने से अक्षम बना देना उपशम है । उपशमन में कर्म की : सत्ता समाप्त नहीं होती, मात्र उसे कालविशेष के लिए फल देने से अक्षम बना दिया जाता है । इस अवस्था में कर्म, राख से दबी अग्नि की तरह निष्क्रिय होकर सत्ता में बने रहते हैं।
(९) निधत्त : कर्म की वह अवस्था निधत्त है, जिसमें कर्म न तो अवान्तर भेदों में संक्रमित या रूपान्तरित हो सकते हैं और न ही असमय में अपना फल प्रदान कर सकते है, लेकिन कर्मों की स्थिति और अनुभाग को कम-अधिक किया जा सकता है । अर्थात् इस अवस्था में कर्मों का उत्कर्षण और अपकर्षण तो संभव है, पर उदीरणा और संक्रमण नहीं । ज्ञानधारा-3 LL १० मन साहित्य SIHARI-3)