Book Title: Gyandhara 03
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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होते हैं । जिनका विपाक नियत है उनमें किसी भी प्रकार से हेराफेरी नहीं की जा सकती । वे कर्म जैन परिभाषा में निकाचित कर्म कहलाते है । जिन कर्मों का बंध तीव्र कषाय के द्वारा हुआ है वे प्रगाढ़ कर्म है, उनका विपाक नियत होता है । इसके विपरीत जीन कर्मों को बंधन के समय कषाय की अल्पता होती है वे अनियत - विपाकी कर्म है अर्थात् उनके फल एवं समय में परिवर्तन किया जा सकता है । जैन-कर्मसिद्धांत की संक्रमण, उदवर्तना, अपवर्तना, उदीरणा एवं उपशमन की अवस्थाएँ कर्मों को अनियत विपाक की और संकेत करती है ।
कर्म-सिद्धांत के संदर्भ में एक विचारणीय प्रश्न है कि क्या व्यक्ति अपने किये हुए शुभ-अशुभ कर्मों का फल दूसरे व्यक्ति को दे सकता है अथवा नहीं दे सकता ? __जैनदर्शन के अनुसार प्राणी के शुभ-अशुभ कर्मों के प्रतिफल में कोई भागीदार नहीं बन सकता । जो कर्म करता है उसको उसका फल भोगना पड़ता है। उत्तराध्ययन सूत्र' में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि - "उसके दःख को न ज्ञातिजन बांट सकते है और न मित्र, पुत्र. बंधुजन, वह स्वयं अकेला ही प्राप्त दुःखों को भोगता है, क्योंकि कर्म कर्ता के पीछे चलता है ।" 'भगवती सूत्र' में भगवान महावीर ने स्पष्ट रूप से कहा है कि - "प्राणी स्वकृत सुख-दुःख का भोग करते है, परकृत सुख-दुःख का भोग नहीं करते है।"
कर्म की अवस्था : जैनदर्शन में कर्म की बंध आदि दश अवस्थाएँ मानी गयी है । जैन परम्परानुसार आत्मा बंधन स्वतः नहीं होता है, अतः इसका कोई निमित्त कारण अवश्य होना चाहिए । जैन कर्म-सिद्धांत नियतिवादी नहीं है और स्वच्छन्दतावादी भी नहीं है । जीव के प्रत्येक कर्म के द्वारा किसी न किसी प्रकार की शक्ति उत्पन्न होती है, जो अपना कुछ न कुछ प्रभाव दिखाए बिना नहीं रहती । कर्म बंध के प्रश्चात् उसके फल भोग तक कर्मों की दशाओं में बहुत कुछ परिवर्तन संभव है । यह सब जीव की आन्तरिक पवित्रता और पुरुषार्थ पर निर्भर है । जीव के शुभ-अशुभ भावों के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली कर्मों की इन दशाओं/अवस्थाओं को जैन आगम में ज्ञानधारा- 3
१ ०४ मन साहित्य SITENA-3)
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