Book Title: Gyandhara 03
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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के समस्त पूराने कर्मों का क्षय निर्जरा कर दी जाय तो यह जीव कर्मबंधन से सर्वथा मुक्त हो जायेगा। ___ मुक्त और संसारी यह दो मूलभूत अवस्था जीवों की है । मुक्त जीव सभी सर्वथा सर्व कर्म रहित होते है, और संसारी जीव कर्म से बंधे है। संसार का कारण कर्म है और कर्म के कारण ही संसार चल रहा है । अत: मूलभूत कारण स्वरूप कर्मों का क्षय होने से संसार मे मुक्ति मिलती है । यानी यही मोक्ष है।
मेरे कर्मों का कर्ता मैं स्वयं हैं, न कोई अन्य । मैंने ही रागद्वेषादि द्वारा जो पापप्रवृत्ति की है इसी पाप के बने हए पिण्ड को कर्म कहते है । मैंने ही कर्मों को बनाया है । मेरे ही बनाये हुए है।
न सा जाई, न तत् जीणी, न तत् कुलं न तत् ठाणं । जत्थ जीणो अणतसो, न जन्मा ने मुआ ||
ऐसी कोई जाति नहीं है, ऐसी कोई योनि नहीं है, ऐसा कोई कुल नहीं है, ऐसा कोई स्थान (क्षेत्र) नहीं है, जहाँ पर जीव अनंतबार न जन्मा हो और न मरा हो, अर्थात् समस्त बह्माण्ड की एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक की सभी जातियों में, ८४ लाख जीव योनियों में, सभी कल में, सभी स्थानों (क्षेत्रों) में यह जीव अनंतबार जन्म-मरण धारण कर चुका है। __जैन परम्परा में संसारी की प्रत्येक क्रिया अथवा प्रवृत्ति कर्म कहलाती है । जैन परिभाषा में इसको भावकर्म कहते है । इसी भावकर्म अर्थात् जीव की शरीर, वाणी एवं मन की क्रिया के द्वारा जो पुद्गल आकर आत्मा को चिपक जाते है, उनके जैनदर्शन में द्रव्यकर्म कहा जाता है। _ 'जैन-सिद्धांत दीपिका' में कहा गया' -
"आत्मप्रवृत्या कृष्टास्तत्यायोग्य पुद्गलाः कर्म ।" आत्मा की प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट एवं कर्म रूपी में परिणत होने योग्य पुद्गलों को कर्म कहते है । 'जैनदर्शन' में सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर को स्वीकार नहीं करते है । उनके अनुसार जगत् की विविधता कर्मकृत है। कर्म का कर्ता प्राणी है। वह कर्म का बंधन करता है । फिर कर्म उसे अपना फल देते है, इस प्रकार यह क्रम चलता रहता है । शालधारा-3 मम १०२ मन साहित्य SIMern-3)
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