Book Title: Gyandhara 03
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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'करण' शब्द से जाना जाता है । करण दस होते है, जो कर्मों के विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण करते हैं । ___(१) बन्ध, (२) सत्ता, (३) उदय, (४) उदीरणा, (५) उत्कर्षण, (६) अपकर्षण, (७) संक्रमण, (८) उपशम, (९) निधत्त, (१०) निकाचित ।
(१) गन्ध : यह आत्मा और कर्म की एकीभूत अवस्था है । कर्म के परमाणुओं का आत्मा के साथ एकमेक हो जाना ही बन्ध है । . (२) सत्ता : कर्मबंधन के बाद और फल देने से पूर्व बीच की स्थिति को सत्ता कहते है । सत्ताकाल में कर्म अस्तित्व में तो रहता है, पर सक्रिय नहीं होता ।
(३) उदय : जब कर्म अपना फल देना प्रारम्भ कर देते है, उसे उदय कहते हैं । फल देने के पश्चात् कर्म की निर्जरा हो जाती है । उदय दो प्रकार का होता है - प्रदेशोदय और फलोदय ।
कर्म का अपना अपने चेतन अनुभूति कराये बिना ही, निर्जरित होना प्रदेशोदय कहलाता है । जेसे - अचेतन अवस्था में शल्यक्रिया की वेदना की अनुभूति नहीं होती, यद्यपि वेदना की घटना घटित होती है, इसी प्रकार बिना अपनी फलानूभूति करवाये जो कर्म परमाणु आत्म से निर्जरित हो जाते है उनका उदय 'प्रदेशोदय' कहलाता है । तथा कर्म का अपनी फलानुभूति कराते हुए निर्जरित होना फलोदय कहलाता है।
(४) उदीरणा : अपने नियत काल से पूर्व ही पूर्वबद्ध कर्मों का प्रयासपूर्वक उदय में लाकर उनके फलों को भोगना उदीरणा कहलाती है।
(५) उत्कर्षण : पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और अनुभाग के बढ़ने को उत्कर्षण कहते है. । नवीन बंध करते समय आत्मा पूर्वबद्ध कर्मों की काल-मर्यादा और तीव्रता को बढ़ा भी सकता है । कालमर्यादा और तीव्रता को बढ़ाने की यह प्रक्रिया उत्कर्षण कहलाती है।
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निधारा-3
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જૈન સાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૩
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