________________
ज्ञानबिन्दुपरिचय-ज्ञान की सामान्य चर्चा समालोचना के प्रस्तुत मुद्दे के बारे में उपाध्यायजी का कहना इतना ही है कि अगर वेदान्त दर्शन ब्रह्म को सर्वथा निरंश और कूटस्थ स्वप्रकाश मानता है, तब वह उस में अज्ञान के द्वारा किसी भी तरह से 'आवृतानावृतत्व' घटा नहीं सकता; जैसा कि जैन दर्शन घटा सकता है।
६. [६७ ] जैन दृष्टि के अनुसार एक ही चेतना में 'आवृतानावृतत्व' की उपपत्ति करने के बाद भी उपाध्यायजी के सामने एक विचारणीय प्रश्न आया। वह यह कि केवलज्ञानावरण चेतना के पूर्णप्रकाश को आवृत करने के साथ ही जब अपूर्ण प्रकाश को पैदा करता है, तब वह अपूर्ण प्रकाश, एक मात्र केवलज्ञानावरणरूप कारण से जन्य होने के कारण एक ही प्रकार का हो सकता है । क्यों कि कारणवैविध्य के सिवाय कार्य का वैविध्य सम्भव नहीं। परन्तु जैन शास्त्र और अनुभव तो कहता है कि अपूर्ण ज्ञान अवश्य तारतम्ययुक्त ही है। पूर्णता में एकरूपता का होना संगत है पर अपूर्णता में तो एकरूपता असंगत है। ऐसी दशा में अपूर्ण ज्ञान के तारतम्य का खुलासा क्या है सो आप बतलाइए ?। इस का जवाब देते हुए उपाध्यायजी ने असली रहस्य यही बतलाया है कि अपूर्ण ज्ञान केवलज्ञानावरणजनित होने से सामान्यतया एकरूप ही है। फिर भी उस के अवान्तर तारतम्य का कारण अन्यावरणसंबन्धी क्षयोपशमों का वैविध्य है । घनमेघावृत सूर्य का अपूर्ण-मन्द प्रकाश भी वस्त्र, कट, भित्ति आदि उपाधिभेद से नानारूप देखा ही जाता है । अतएव मतिज्ञानावरण आदि अन्य आवरणों के विविध क्षयोपशमों से-विरलता से मन्द प्रकाश का तारतम्य संगत है । जब एकरूप मन्द प्रकाश भी उपाधिभेद से चित्र-विचित्र संभव है, तब यह अर्थात् ही सिद्ध हो जाता है कि उन उपाधियों के हटने पर वह वैविध्य भी खतम हो जाता है । जब केवलज्ञानावरण क्षीण होता है तब बारहवें गुणस्थान के अन्त में अन्य मति आदि चार आवरण और उन के क्षयोपशम भी नहीं रहते। इसी से उस समय अपूर्ण ज्ञान की तथा तद्गत तारतम्य की निवृत्ति भी हो जाती है। जैसे कि सान्द्र मेघपटल तथा वस्त्र आदि उपाधियों के न रहने पर सूर्य का मन्द प्रकाश तथा उस का वैविध्य कुछ भी थाकी नहीं रहता, एकमात्र पूर्ण प्रकाश ही स्वतः प्रकट होता है; वैसे ही उस समय चेतना भी स्वतः पूर्णतया प्रकाशमान होती है जो कैवल्यज्ञानावस्था है। __ उपाधि की निवृत्ति से उपाधिकृत अवस्थाओं की निवृत्ति बतलाते समय उपाध्यायजी ने आचार्य हरिभद्र के कथन का हवाला दे कर आध्यात्मिक विकासक्रम के स्वरूप पर जानने लायक प्रकाश डाला है। उन के कथन का सार यह है कि आत्मा के औपाधिक पर्यायधर्म मी तीन प्रकार के हैं। जाति गति आदि पर्याय तो मात्र कर्मोदयरूप-उपाधिकृत है। अत एव वे अपने कारणभूत अघाती कर्मों के सर्वथा हट जाने पर ही मुक्ति के समय निवृत्त होते हैं । क्षमा, सन्तोष आदि तथा मति ज्ञान आदि ऐसे पर्याय हैं जो क्षयोपशमजन्य हैं । तात्त्विक धर्मसंन्यास की प्राप्ति होने पर आठवें आदि गुणस्थानों में जैसे जैसे कर्म के क्षयोपशम का स्थान उस का क्षय प्राप्त करता जाता है वैसे वैसे क्षयोपशमरूप उपाधि के न रहने से उन पर्यायों में से तजन्य वैविध्य भी चला जाता है। जो पर्याय कर्मक्षयजन्य होने से क्षायिक अर्थात् पूर्ण और एकरूप ही हैं उन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org