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ज्ञानबिन्दुपरिचय-मतिज्ञान के विशेष निरूपण में नया ऊहापोह १. जैन
२. जैनेतर -न्यायादि
आगम-शब्दप्रमाण
द्रव्य
भाव
शब्द
शाब्दबोध
व्यंजनाक्षर संज्ञाक्षर लब्ध्यक्षर
शब्द
लिपि
शक्ति व्यक्ति -बोध (उपयोग) पदार्थोपस्थिति, संकेतज्ञान, आकांक्षा, योग्यता, आसत्ति, तात्पर्यज्ञान आदि शाब्दबोध के कारण जो नैयायिकादि परंपरा में प्रसिद्ध हैं, उन सब को उपाध्यायजी ने शाब्दबोध-परिकर रूप से शाब्दबोध में ही समाया है । इस जगह एक ऐतिहासिक सत्य की ओर पाठकों का ध्यान खींचना जरूरी है। वह यह कि जब कभी, किसी जैन आचार्यने, कहीं भी नया प्रमेय देखा तो उस का जैन परंपरा की परिभाषा में क्या स्थान है यह बतला कर, एक तरह से जैन श्रुत की श्रुतान्तर से तुलना की है । उदाहरणार्थ-भर्तृहरीय 'वाक्यपदीय' में वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और सूक्ष्मा रूपसे जो चार प्रकार की भाषाओं का बहुत ही विस्तृत और तलस्पर्शी वर्णन है, उस का जैन परंपरा की परिभाषा में किस प्रकार समावेश हो सकता है, यह स्वामी विद्यानन्दने बहुत ही स्पष्टता और यथार्थता से सब से पहले बतलाया है, जिस से जैन जिज्ञासुओं को जैनेतर विचार का और जैनेतर जिज्ञासुओं को जैन विचार का सरलता से बोध हो सके । विद्यानन्द का वही समन्वय वादिदेवसूरि ने अपने ढंगसे वर्णित किया है । उपाध्यायजी ने भी, न्याय आदि दर्शनों के प्राचीन और नवीन न्यायादि ग्रन्थों में, जो शाब्दबोध और आगम प्रमाण संबंधी विचार देखे और पढे उन का उपयोग उन्हों ने ज्ञानबिन्दु में जैन श्रुत की उन विचारों के साथ तुलना करने में किया है, जो अभ्यासी को खास मनन करने योग्य है।
(६) मतिज्ञान के विशेष निरूपण में नया ऊहापोह [६३४ ] प्रसंगप्राप्त श्रुत की कुछ बातों पर विचार करने के बाद फिर प्रन्थकारने प्रस्तुत मतिज्ञान के विशेषों-भेदों का निरूपण शुरू किया है । जैन वाङ्मय में मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चार भेद तथा उन का परस्पर कार्यकारणभाव प्रसिद्ध है। आगम और तर्कयुग में उन भेदों पर बहुत कुछ विचार किया गया है । पर उपाध्यायजी ने ज्ञानबिन्दु में जो उन भेदों की तथा उन के परस्पर कार्यकारणभाव की विवेचना की है वह प्रधानतया विशेषावश्यकभाष्यानुगामिनी है । इस विवेचना में उपाध्यायजी ने पूर्ववर्ती जैन साहित्य का सार तो रख ही दिया है।
१देखो, वाक्यपदीय १.११४ । २ देखो, तत्त्वार्थश्लो०, पृ. २४०,२४१। ३ देखो, स्याद्वादरत्नाकर, पू. ९७। ४ देखो, विशेषावश्यकभाष्य, गा० २९६-२९९ ।
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