Book Title: Gyanbindu
Author(s): Yashovijay Upadhyay, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Andheri Jain Sangh

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Page 278
________________ ज्ञानबिन्दुपरिचय- केवलज्ञान-दर्शनोपयोग के भेदाभेद की चर्चा ६१ चली तथा उस में अनेक आचार्यों ने एक एक पक्ष ले कर समय समय पर भाग लिया। जब ऐसी स्थिति है तब यह भी कल्पना की जा सकती है कि सिद्धसेन दिवाकर के पहले वृद्धाचार्य नाम के आचार्य भी अभेद वाद के समर्थक हुए होंगे या परंपरा में माने जाते होंगे। सिद्धसेन दिवाकर के गुरुरूप से वृद्धवादि का उल्लेख भी कथानकों में पाया जाता है। आश्चर्य नहीं कि वृद्धाचार्य ही वृद्धवादी हों और गुरु वृद्धवादि के द्वारा समर्थित अभेद वाद का ही विशेष स्पष्टीकरण तथा समर्थन शिष्य सिद्धसेन दिवाकर ने किया हो । सिद्धसेन दिवाकर के पहले भी अभेद वाद के समर्थक निःसंदेह रूप से हुए हैं यह बात तो सिद्धसेन ने किसी अभेद वाद के समर्थक एकदेशीय मत [सन्मति २.२१] की जो समालोचना की है उसी से सिद्ध है । यह तो हुई हरिभद्रीय कथन के आधार की बात। अब हम अभयदेव के कथन के आधार पर विचार करते हैं । अभयदेव सूरि के सामने जिनभद्र क्षमाश्रमण का क्रमवादसमर्थक साहित्य रहा जो आज भी उपलब्ध है। तथा उन्हों ने सिद्धसेन दिवाकर के सन्मतितर्क पर तो अतिविस्तृत टीका ही लिखी है कि जिस में दिवाकर ने अभेद वाद का खयं मार्मिक स्पष्टीकरण किया है । इस तरह अभयदेव के पादों के पुरस्कर्तासंबंधी नाम वाले कथन में जो क्रम वाद के पुरस्कर्ता रूप से जिनभद्र का तथा अभेद वाद के पुरस्कर्ता रूप से सिद्धसेन दिवाकर का उल्लेख है वह तो साधार है ही; पर युगपद् वाद के पुरस्कर्ता रूप से मल्लवादि को दरसाने वाला जो अभयदेव का कथन है उस का आधार क्या है ? - यह प्रश्न अवश्य होता है । जैन परंपरा में मल्लवादी नाम के कई आचार्य हुए माने जाते हैं पर युगपद् वाद के पुरस्कर्ता रूप से अभयदेव के द्वारा निर्दिष्ट मल्लवादी वही वादिमुख्य संभव है जिन का रचा 'द्वादशारनयचक्र' मौजूद है और जिन्हों ने दिवाकर के सन्मतितर्क पर भी टीका लिखी थी जो कि उपलब्ध नहीं है। यद्यपि द्वादशारनयचक्र अखंड रूप से उपलब्ध नहीं है पर वह सिंहगणि क्षमाश्रमण कृत टीका के साथ खंडित प्रतीक रूप में उपलब्ध है। अभी हमने उस सारे सटीक नयचक्र का अवलोकन कर के देखा तो उस में कहीं भी केवल ज्ञान और केवल दर्शन के संबंध में प्रचलित उपर्युक्त वादों पर थोड़ी भी चर्चा नहीं मिली। यद्यपि सन्मतितर्क की मल्लवादिकृत टीका उपलब्ध नहीं है पर जब मल्लवादि अभेद समर्थक दिवाकर के ग्रन्थ पर टीका लिखें तब यह कैसे माना जा सकता है कि उन्हों ने दिवाकर के ग्रन्थ की व्याख्या लिखते समय उसी में उन के विरुद्ध अपना युगपत् पक्ष किसी तरह स्थापित किया हो। इस तरह जब हम सोचते हैं तब यह नहीं कह सकते हैं कि अभयदेव के युगपद् वाद के पुरस्कर्ता रूप से मल्लवादि के उल्लेख का आधार नयचक्र या उन की सन्मतिटीका में से रहा होगा। अगर अभयदेव का उक्त उल्लेखांश अभ्रान्त एवं साधार है तो अधिक से अधिक हम यही कल्पना कर सकते हैं कि मल्लवादि का कोई अन्य युगपत् पक्ष समर्थक छोटा बड़ा प्रन्थः अभयदेव के सामने रहा होगा अथवा ऐसे मन्तव्य वाला कोई उल्लेख उन्हें १ "उक्तं च षादिमुख्यैन श्रीमल्लवादिना सन्मतौ" अनेकान्तजयपताका टीका, पृ० ११६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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