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ज्ञानबिन्दुपरिचय - अवधि और मनःपर्याय की चर्चा ४१ ध्यवहित और विप्रकृष्ट मूर्त पदार्थों का साक्षात्कार कर सके । मनःपर्याय प्रत्यक्ष यह है जो मात्र मनोगत विविध अवस्थाओं का साक्षात्कार करे । इन दो प्रत्यक्षों का जैन वारमय में बहुत विस्तार और भेद-प्रभेद वाला मनोरञ्जक वर्णन है।
वैदिक दर्शन के अनेक ग्रन्थों में-खास कर 'पातञ्जलयोगसूत्र' और उस के भाष्य मादि में- उपर्युक्त दोनों प्रकार के प्रत्यक्ष का योगविभूतिरूप से स्पष्ट और आकर्षक वर्णन है' । 'वैशेषिकसूत्र' के 'प्रशस्तपादभाष्य' में भी थोडा-सा किन्तु स्पष्ट वर्णन है। बौद्ध दर्शन के 'मज्झिमनिकाय' जैसे पुराने प्रन्थों में भी वैसे आध्यात्मिक प्रत्यक्ष का स्पष्ट वर्णन है। जैन परंपरा में पाया जाने वाला 'अवधिज्ञान' शब्द तो जैनेतर परंपराओं में देखा नहीं जाता पर जैन परंपरा का 'मनापर्याय' शब्द तो 'परचित्तज्ञान" या "परचित्तविजानना' जैसे सदृशरूप में अन्यत्र देखा जाता है। उक्त दो ज्ञानों की दर्शनान्तरीय तुलना इस प्रकार है
२. वैदिक
३. बौद्ध
१. जैन
२ मनःपर्याय
वैशेषिक
पातञ्जल १ अवधि १ वियुक्तयोगिप्रत्यक्ष १भुवनज्ञान, अथवा
ताराव्यूहज्ञान, युखानयोगिप्रत्यक्ष ध्रुवगतिज्ञान आदि २ परचित्तज्ञान २ परचित्तज्ञान,
चेतःपरिज्ञान मनापर्याय ज्ञान का विषय मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु है या चिन्तनप्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाएँ है'- इस विषय में जैन परंपरा में ऐकमत्य नहीं। नियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र एवं तस्वार्थसूत्रीय व्याख्याओं में पहला पक्ष वर्णित है; जब कि विशेषावश्यकभाष्य में दूसरे पक्ष का समर्थन किया गया है। परंतु योगभाष्य तथा मज्झिमनिकाय में जो परचित्त ज्ञान का वर्णन है उस में केवल दूसरा ही पक्ष है जिस का समर्थन जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने किया है। योगभाष्यकार तथा मज्झिमनिकायकार स्पष्ट शब्दों में यही कहते है कि ऐसे प्रत्यक्ष के द्वारा दूसरों के चित्त का ही साक्षात्कार होता है, चित्त के आलम्बन का नहीं। योगभाष्य में तो चित्त के आलम्बन का प्रहण हो न सकने के पक्ष में दलीलें मी दी गई हैं। ___ यहाँ विचारणीय बातें दो है- एक तो यह कि मनापर्याय ज्ञान के विषय के बारे में जो जैन वास्मय में दो पक्ष देखे जाते हैं, इस का स्पष्ट अर्थ क्या यह नहीं है कि पिछले
. १देखो, योगसूत्र विभूतिपाद, सूत्र १९.२६ इत्यादि । २ देखो, कंदलीटीकासहित प्रशस्तपादभाष्य, प. १८७॥ ३ देखो, मजिझमनिकाय, सुत्त । ४ "प्रत्ययस परचित्तशानम्"-योगसूत्र. ३.१९। ५देखो, अमिषम्मत्वसंगहो, ९.२४ । देखो, प्रमाणमीमांसा, भाषाटिप्पण पृ.३७ तथा शानबिन्दु,टिपण पृ.१.७॥
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