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ज्ञानविन्दुपरिचय- मति और श्रुत ज्ञान की चर्चा परिभाषाओं के साथ जैन प्रक्रिया की तुलना की है, जो विशेष रूप से ज्ञातव्य हैं। -देखो, योगदर्शन यशो० २.४ । - यह सब होते हुए भी कर्मविषयक जैनेतर वर्णन और जैन वर्णन में खास अन्तर भी नजर आता है। पहला तो यह कि जितना विस्तृत, जितना विशद और जितना पृथक्करणवाला वर्णन जैन ग्रन्थों में है उतना विस्तृत, विशद और पृथक्करणयुक्त कर्मवर्णन किसी अन्य जैनेतर साहित्य में नहीं है। दूसरा अन्तर यह है कि जैन चिन्तकों ने अमूर्त अध्यवसायों या परिणामों की तीव्रता-मन्दता तथा शुद्धि-अशुद्धि के दुरूह तारलम्य को पौद्गलिक'- मूर्त कर्मरचनाओं के द्वारा व्यक्त करने का एवं समझाने का जो प्रयत्न किया है वह किसी अन्य चिन्तक ने नहीं किया है। यही सबब है कि जैन वारूमय में कर्मविषयक एक स्वतत्र साहित्यराशि ही चिरकाल से विकसित है।
२. मति-श्रुतज्ञान की चर्चा शान की सामान्य रूप से विचारणा करने के बाद प्रन्थकार ने उस की विशेष विचारणा करने की दृष्टि से उस के पाँच भेदों में से प्रथम मति और भुत का निरूपण किया है। यद्यपि वर्णनक्रम की दृष्टि से मति ज्ञान का पूर्णरूपेण निरूपण करने के बाद ही भुत का निरूपण प्राप्त है, फिर भी मति और श्रुत का स्वरूप एक दूसरे से इतना विविक्त नहीं है कि एक के निरूपण के समय दूसरे के निरूपण को टाला जा सके इसी से दोनों की चर्चा साथ साथ कर दी गई है [पृ० १६. पं० ६] इस चर्चा के आधार से तथा उस भाग पर संगृहीत अनेक टिप्पणों के आधार से जिन खास खास मुद्दों पर यहाँ विचार करना है, वे मुद्दे ये हैं.. (१) मति और श्रुत की भेदरेखा का प्रयत्न ।
(२) शुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित मति का प्रश्न । (३) चतुर्विध वाक्यार्थज्ञान का इतिहास । (४) अहिंसा के स्वरूप का विचार तथा विकास । (५) षट्स्थानपतितत्व और पूर्वगत गाथा; और (६) मति ज्ञान के विशेष निरूपणमें नया ऊहापोह ।
(१) मति और श्रुत की भेदरेखा का प्रयत्न जैन कर्मशास्त्र के प्रारम्भिक समय से ही ज्ञानावरण कर्म के पाँच भेदों में मति.
१न्यायसूत्र के व्याख्याकारों ने अदृष्ट के खरूप के संबन्ध में पूर्वपक्ष रूपसे एक मत का निर्देश किया है। जिस में उन्हों ने कहा है कि कोई अदृष्ट को परमाणुगुण मानने वाले भी हैं-न्यायभाष्य ३.२.६७। वाचस्पति मिश्र ने उस मत को स्पष्टरूपेण जैनमत (तात्पर्य. पृ० ५८४) कहा है। जयन्त ने (न्यायम• प्रमाण. पृ० २५५) भी पौद्गलिकअदृष्टवादी रूपसे जैन मत को ही बतलाया है और फिर उन सभी व्याख्याकारों ने उस मत की समालोचना की है। जान पडता है कि न्यायसूत्र के किसी व्याख्याता ने अदृष्टविषयक जैन मत को ठीक ठीक नहीं समझा है। जैन दर्शन मुख्य रूप से अदृष्ट को आत्मपरिणाम ही मानता है। उसने पुद्गलों को जो कर्म-अदृष्ट कहा है वह उपचार है। जैन शास्त्रों में आश्रवजन्य या आथवजनक रूप से पौगलिक कर्म का जो विस्तृत विचार है और कर्म के साथ पुद्गल शब्द का जो बार बार प्रयोय देखा जाता
है भी से वात्स्यायन आदि सभी व्याख्याकार भ्रान्ति या अधूरे ज्ञानवश खण्डन में प्रवृत्त हुए जान पड़ते है। Jain Education International For Private & Personal Use Only
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