Book Title: Granthtrai
Author(s): Vijayanandsuri, Shilchandrasuri
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti
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४७
प्रतिष्ठतत्त्वम्
अर्हत्सम्यग्गुणश्रेणि-परिज्ञानैकपूर्वकम् । अमुञ्चता मनोरङ्ग-मुपसर्गेऽपि भूयसि ॥५५०॥ अर्हत्सम्बन्धिकार्यार्थं सर्वस्वमपि दित्सुना । भव्याङ्गिना महोत्साहात्, क्रियते या निरन्तरम् ॥५५१॥ भक्तिः शक्त्यनुसारेण, निःस्पृहाशयवृत्तिना । सा सात्त्विकी भवेद्भक्ति-र्लोकद्वयहितावहा ॥५५२॥ यदैहिकफलप्राप्ति-हेतवे कृतनिश्चया । लोकरञ्जनवृत्त्यर्थं राजसी भक्तिरुच्यते ॥५५३।। द्विषदां यत्प्रतीकार-भिदे या कृतमत्सरम् । दृढाशयं विधीयेत, सा भक्तिस्तामसी भवेत् ॥५५४।। रजस्तमोमयी भक्तिः, सुप्रापा सर्वदेहिनाम् । दुर्लभा सात्त्विकी भक्तिः शिवावधि सुखावहा ॥५५५॥ उत्तमा सात्त्विकी भक्ति-मध्यमा राजसी पुनः । जघन्या तामसी ज्ञेया, नादृता तत्त्ववेदिभिः ॥५५६॥ पूजा देवाधिदेवस्य, दृष्टिनैर्मल्यकारिणी । ध्यानधारा ततः शुद्धा, समाधिश्च ततः परा ॥५५७॥ युष्मदस्मत्पदोल्लेखा-भावतोऽभेदबुद्धितः । किञ्चिदगोचरं ज्योति-श्चिन्मयं भासते ततः ॥५५८॥ इलिका भ्रमरीध्यानाद, भ्रमरीत्वं यथाऽश्नुते । तथा ध्यायन् परात्मानं, परमात्मत्वमाप्नुयात् ॥५५९॥ अज्ञानध्वान्तविध्वंसे, ज्ञानाञ्जनस्पृशा दृशा । आत्मन्येव हि पश्यन्ति, परमात्मानमञ्जसा ॥५६०॥ अत एव च योऽर्हन्तं, स्वद्रव्यगुणपर्यवैः । वेदात्मानं स एव स्वं, वेदेत्युक्तं महर्षिभिः ॥५६१॥
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