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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
शंका भवतु विवक्षितमेतन्जजु यावन्तो निरंशदेशांशाः ।
लल्लक्षणयोगादप्यणुवद्रव्याणि सन्तु तावन्ति ॥ ३१॥ अर्थ-शंकाकार कहता है कि यह आपकी विवक्षा रहो अर्थात् आप जो द्रव्य में निरंश अंशों की कल्पना करते हो वह करो। परन्तु जितने भी निरंश देशांश हैं उन्हीं को एक-एक द्रव्य समझो।जिस प्रकार परम प्रकार एक द्रव्य में जितने निरंश देशांशों की कल्पना की जाती है उनको उतने ही द्रव्य समझना चाहिये, न कि एक द्रव्य पानकर उसके अंश समझो। द्रव्य का लक्षण उन प्रत्येक अंशों में जाता ही है। ___ भावार्थ-गुण समुदाय ही द्रव्य कहलाता है। यह द्रव्य का लक्षण द्रव्य के प्रत्येक देशांश में मौजूद है इसलिये जितने भी देशांश हैं उतने ही उन्हें द्रव्य समझना चाहिये। ।
समाधान ३२ से ३७ तक नैवं यतो विशेषः परमः स्यात्पारिणामिकोऽध्यक्षः । खण्डैकदेशवस्तुन्यरखण्डिताजेकदेशे
च ॥ ३२ ॥ अर्थ-उक्त शंका ठीक नहीं है क्योंकि खण्ड स्वरूप एकदेश वस्तु मानने से और अखण्ड स्वरूप अनेक देश वस्तु मानने से गुण परिणमन में बड़ा भारी भेद पड़ता है, यह बात प्रत्यक्ष है।
भावार्थ-यदि शंकाकार के कहने के अनुसार देशांशों को ही द्रव्य माना जावे तो द्रव्य एक देश वाला खण्डखण्ड रूप होगा। अखण्ड रूप अनेक प्रदेशी नहीं ठहरेगा।खण्ड रूप एक प्रदेशी मानने में क्या दोष आता है सो आगे लिखा जाता है:
प्रथमोद्देशितपक्षे यः परिणामो गुणात्मकस्तस्य ।
एकत्र तत्र देशे भवितुं शीलो ज सर्तदेशेषु ॥ ३३ ।। अर्थ-पहला पक्ष स्वीकार करने से अर्थात् खण्डरूप एक प्रदेशी द्रव्य मानने से उसका जो गुणों का परिणमन होगा वह सम्पूर्ण वस्तु में न होकर उसके एक ही देशांश में होगा।( क्योंकि शंकाकार एक देशांश रूप ही वस्तु को समझता है। इसलिये उसके कथनानुसार गुणों का परिणमन एक देश में ही होगा।)
तटसत्प्रमाणबाधितपक्षत्वादक्षसंविदुपलब्धेः ।
देहेकदेशविषयस्पर्शादिह सर्वदेशेषु ॥ ३४ ॥ अर्थ- गुणों का परिणमन एक देश में होता है यह बात प्रत्यक्ष बाधित है। जिसमें प्रमाण-बाधा आवे वह पक्ष किसी प्रकार ठीक नहीं हो सकता। इन्द्रियजन्य ज्ञान से यह बात सिद्ध है कि शरीर के एक देश में स्पर्श होने से सम्पूर्ण देशों में रोमाञ्च हो जाता है।
भावार्थ-शरीर प्रमाण आत्म द्रव्य है इसलिये शरीर के एक देश में स्पर्श होने से सम्पूर्ण में रोमाञ्च होते हैं अथवा शरीर के एक देश में चोट लगने से सम्पूर्ण में वेदना होती है। यदि शंकाकार के कथनानुसार आत्मा का एक-एक अंश ( प्रदेश)ही एक-एक आत्म द्रव्य समझा जाय तो एक देश में चोट लगने से सब में पीड़ा नहीं होनी चाहिये, जिस देश में कष्ट पहुँचा है उसी देश में पीड़ा होनी चाहिये परन्तु होता इसके सर्वथा प्रतिकूल है अर्थात् सम्पूर्ण शरीर में एक आत्मा होने से सम्पूर्ण में ही वेदना होती है। इसलिए खण्डरूप एक देश स्वरूप वस्तु नहीं है किन्तु अखण्ड स्वरूप अनेक प्रदेशी है।
प्रथमेतरपक्षे खलु यः परिणामः सः सर्तदेशेषु ।
एको हि सर्वपर्वसु प्रकम्पते ताडितो वेणुः ।। ३५ ॥ अर्थ- दसरा पक्ष स्वीकार करने पर अर्थात अनेक प्रदेशी-अखण्ड रूप,द्रव्य मानने पर जो गुणात्मक परिणमन होगा वह सर्व देश में (सम्पूर्ण वस्तु में) होगा। यह ठीक है क्योंकि हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि एक बेंत को एक तरफ से हिलाने से सारा बेंत हिल जाता है।