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प्रस्थराज श्री पञ्चाध्यायी
समाधान अंशतिभागः स्याटित्यरवण्डदेशे महत्यपि द्रव्ये । विष्कम्भरय क्रमतो व्योभनीवांगुलिवितरितहरतादि || २५ ॥ प्रथमो द्वितीय इत्याहारांरख्यटशास्ततोऽप्यजन्ताश्च । अशा निरंशरूपास्तावन्तो द्रव्यपर्थयारय्यास्ते ॥ २५ ।। पर्यायाणामेतद्धर्म यत्त्वशकल्पनं द्रव्ये ।
तरमादिदमनवयं सर्वं सुस्थं प्रमाणतश्चापि ॥ २६ ॥ अर्थ-यद्यपि द्रव्य अखण्ड देश है और बड़ा भी है तथापि उसमें अंशों का विभाग कल्पित किया जाता है। जिस प्रकार आकाश में चौड़ाई के क्रम से एक अंगुल आकाश, एक विलस्त आकाश,एक हाथ आकाश आदि अंश विभाग किया जाता है, उसी प्रकार अखण्ड देशी महान द्रव्य में भी चौड़ाई के क्रम से पहला, दूसरा इत्यादि असंख्यात प्रदेश, उससे भी आगे अनन्त प्रदेश रूप अंश विभाग किया जाता है। जितने भी एक द्रव्य में निरंश (जिसका दूसरा अंश न हो सके, अविभागी) अंश है उतनी वे उस द्रव्य की द्रव्य पर्यायें समझनी चाहिये (अर्थात् एक द्रव्य की चौड़ाई समझने के लिये उसके अखण्ड देश में जो प्रदेश कल्पना है वे द्रव्य पर्यायें कहलाती हैं) प्रत्येक अंश को ही द्रव्य पर्याय कहते हैं क्योंकि द्रव्य में जो अंशों की कल्पना की जाती है.वही पर्यायों का स्वरूप है। इसलिये यह सब अंश कल्पना निर्दोष है और प्रमाण से भी सुव्यवस्थित है।
भावार्थ- समाधान करते हैं कि भेद दो प्रकार से होता है एक तो ऐसा जैसे लकड़ी के दो टुकड़े, यह तो खण्ड रूप भेद है। दूसरा ऐसे जैसे एक अखण्ड धोती में दस गज का भेद करना। दस गज की थोती कहने से कहीं दस टुकड़े नहीं हो गये किन्तु दस गज कहे बिना वह धोती कितनी बड़ी है इसका परिज्ञान नहीं होता। सो यहाँ अखण्ड धोती का परिज्ञान कराने के लिये दस गज का भेद किया है। इससे अखण्ड धोती की प्रतिज्ञा भंग नहीं होती। इस प्रकार भाई यहाँ सपक्ष कहने से जैसा तू खण्ड भेद समझ गया है वह बात नहीं है किन्तु वस्तु तो प्रतिज्ञा अनुसार निर्विकल्प (अखण्ड) ही है केवल उस अखण्ड का परिज्ञान कराने के लिये विधिपूर्वक खण्ड किया जाता है। जैसे आकाश त्रिकाल एक अखण्ड बड़ी भारी वस्तु है। किन्तु जगत में एक अंगुल जगह, एक हाथ जगह (आकाश) ऐसा भेद किया जाता है। ठीक इस प्रकार हमारा तत्त्व तो अखण्डित ही है किन्तु तुझे बोध कराने के लिए भेद करते हैं।
अब अखण्ड वस्तु में वह भेद दो प्रकार से होता है जैसे धोती में एक चौड़ाई का भेद जैसे ४५ इन्चाएक लम्बाई का भेद जैसे दस गज । तब धोती का परिज्ञान होता है। इसी प्रकार वस्तु में एक चौड़ाई की अपेक्षा भेद है। यह भेद प्रदेशों से किया जाता है जैसे एक प्रदेश, असंख्यात प्रदेश, अनन्त प्रदेश। दूसरा भेद वस्तु में लम्बाई की अपेक्षा है, वह परिणमन की अपेक्षा किया जाता है। दोनों प्रकार का भेद वास्तविक रूप से समझने पर ही निर्विकल्प( अखण्डित ) अनादि अनन्त एक वस्तु ख्याल में आ सकती है।
सो पहले प्रदेशों (चौड़ाई) की अपेक्षा भेद का निरूपण श्लोक २५ से ३७ तक करेंगे और फिर परिणमन (लम्बाई) रूप भेद की अपेक्षा निरूपण ३८ से ६३ तक करेंगे। सो भाई यह भेद का निरूपण होते हुए भी तू अभेद वस्तु को पकड़। भेद-भेद में अटकाने के लिये नहीं किया गया है किन्तु भेद तो अभेद में लाने के लिए किया गया है। भेद में राग-बंध-व्यवहार-संसार है और अभेद में वीतरागता, मोक्षमार्ग निश्चय है। अभेद वस्तु के अनुभव कराने के लिए ही भेद का निरूपण ज्ञानियों ने किया है भेद में अटकने के लिये नहीं किया है। यह भेद केवल व्यवहार से है।निश्चय से तो वस्तु अभेद है। यद्यपि प्रमाण दृष्टि से वस्तु भेदा-भेदात्मक है तो भी मोक्षमार्ग का विषय अभेद अनुभव ही है। सम्यक्त्व का विषय अभेद ही है! कथन भी अभेद की मुख्यता से चल रहा है।
यह धोती का मोटा दृष्टान्त केवल समझाने को दिया है क्योंकि धोती का टुकड़ा हो सकता है पर वस्तु का नहीं। वास्तव में आकाश का ही दृष्टान्त ठीक है।