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आधाएँ आई। जैसे आगम के धार-धीरे जैसे-जैसे प्रकाशन समिति ब्यावर धशि पूर्वापेक्षा शुद्ध
परिशिष्ट १. जीव आदि अध्ययनों से सम्बन्धित विषय धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग, चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग के अन्य अध्ययनों में जहाँ-जहाँ
आये हैं उसकी सूची पृष्ठांक व सूत्रांक सहित देने का प्रयल किया है। २. द्रव्यानुयोग से सम्बन्धित शब्दों का कोष पृष्ठांक सहित दिया गया है। ३. जहाँ से पाठ लिये गए हैं उन आगमों के स्थल निर्देश सहित पृष्ठांक के साथ स्थलों की सूची दी है। सूत्रांक सभी जगह आगम
समिति ब्यावर के दिये हैं। स्थानांग के पाठों में महावीर विद्यालय की प्रति के सूत्रांक दिये हैं। कहीं-कहीं अंगसुत्ताणि के सूत्रांक हैं। ४. अनुयोग संकलन का कार्य बहुत दुरूह व श्रमसाध्य है। पूरी सावधानी रखने पर भी गणितानुयोग, धर्मकथानुयोग, चरणानुयोग के
कुछ पाठ छूट गये हैं उन सबका संकलन इस परिशिष्ट में किया है सम्बन्धित विषयों के सूत्रांक व पृष्ठांक दिये गये हैं। ५. संकलन में प्रयुक्त आगम आदि ग्रन्थों की सूची दी है।
इस प्रकार पाँच परिशिष्ट दिये हैं इन सबका संकलन श्री विनय मुनि जी 'वागीश' ने किया है। सहयोग के आधार
चरणानुयोग आदि की भाँति द्रव्यानुयोग के संकलन सम्पादन में विदुषी महासती मुक्तिप्रभा जी, श्री दिव्यप्रभा जी तथा उनका सुशिक्षित शिष्या परिवार सदा सहयोगी रहा है। अनेक वर्षों तक कठिन परिश्रम करके उन्होंने द्रव्यानुयोग की फाइलें तैयार की। उनके श्रम से द्रव्यानुयोग की एक विस्तृत रूपरेखा और सामग्री संयोजित हो गई। इसके पश्चात् उनका विहार पंजाब की तरफ हो जाने से कार्य में अवरोध आ गया। उनकी श्रुत-भक्ति तथा आगम-ज्ञान प्रसंशनीय है। सौभाग्य से आगमज्ञ श्री तिलोक मुनि जी का अप्रत्याशित सहयोग प्राप्त हुआ। इसी के साथ पं. श्री देवकुमार जी जैन का सहयोग मिला और द्रव्यानुयोग का कार्य धीरे-धीरे सम्पन्नता के शिखर पर पहुंच गया।
अनुयोग सम्पादन कार्य में तो अनेक बाधाएँ आईं। जैसे आगम के शुद्ध संस्करण की प्रतियों का अभाव, प्राप्त पाठों में क्रम भंग और विशेषकर "जाव" शब्द का अनपेक्षित/अनावश्यक प्रयोग। फिर भी धीरे-धीरे जैसे-जैसे आगम-सम्पादन कार्य में प्रगति हुई, वैसे-वैसे कठिनाइयाँ भी दूर हुईं। महावीर जैन विद्यालय बम्बई, जैन विश्व भारती लाडनूं तथा आगम प्रकाशन समिति ब्यावर आदि आगम प्रकाशन संस्थानों का यह उपकार ही मानना चाहिए कि आज आगमों के सुन्दर उपयोगी संस्करण उपलब्ध हैं और अधिकांश पूर्वापेक्षा शुद्ध सुसम्पादित हैं। यद्यपि आज भी उक्त संस्थाओं के निर्देशकों की आगम सम्पादन शैली पूर्ण वैज्ञानिक या जैसी चाहिए वैसी नहीं है, लिपि दोष, लिपिकार के मतिभ्रम व वाचना-भेद आदि कारणों से आगमों के पाठों में अनेक स्थानों पर व्युत्क्रम दिखाई देते हैं। पाठ-भेद तो हैं ही, "जाव" शब्द कहीं अनावश्यक जोड़ दिया है जिससे अर्थ वैपरीत्य भी हो जाता है, कहीं लगाया ही नहीं है और कहीं पूरा पाठ देकर भी "जाव" लगा दिया गया है। प्राचीन प्रतियों में इस प्रकार के लेखन-दोष रह गये हैं, जिससे आगम का उपयुक्त अर्थ करने व प्राचीन पाठ परम्परा का बोध कराने में कठिनाई होती है। विद्वान् सम्पादकों को इस ओर ध्यान देना चाहिए था। प्राचीन प्रतियों में उपलब्ध पाठ ज्यों का त्यों रख देना अडिग आगम श्रद्धा का रूप नहीं है, हमारी श्रुत-भक्ति श्रुत को व्यवस्थित एवं शुद्ध रूप में प्रस्तुत करने में है। कभी-कभी एक पाठ का मिलान करने व उपयुक्त पाठ निर्धारण करने में कई दिन व कई सप्ताह लग जाते हैं। किन्तु विद्वान् अनुसन्धाता उसको उपयुक्त रूप में ही प्रस्तुत करता है, आज इस प्रकार के आगम सम्पादन की आवश्यकता है। ____ मैं अपनी शारीरिक अस्वस्थता के कारण, विद्वान् सहयोगी की कमी के कारण तथा परिपूर्ण साहित्य की अनुपलब्धि तथा समय के अभाव के कारण जैसा संशोधित शुद्ध पाठ देना चाहता था वह नहीं दे सका, फिर भी मैंने प्रयास किया है कि पाठ शुद्ध रहे, लम्बे-लम्बे समास पद जिनका उच्चारण दुरूह होता है, तथा उच्चारण करते समय अनेक आगमपाठी भी उच्चारण दोष से ग्रस्त हो जाते हैं। वैसे दुरूह पाठों को सुगम रूप में प्रस्तुत कर छोटे-छोटे पद बनाकर दिया जाये व ठीक उनके सामने ही उनका अर्थ दिया जाये जिससे अर्थबोध सुगम हो। यद्यपि जिस संस्करण का मूल पाठ लिया है, हिन्दी अनुवाद भी प्रायः उन्हीं का लिया है फिर भी अपनी जागरूकता बरती है, अनेक स्थानों पर उचित संशोधन भी किया है। उपर्युक्त तीन संस्थानों के अलावा आगमोदय समिति रतलाम तथा सुत्तागमे (पुष्फभिक्खुजी) के पाठ भी उपयोगी हुए हैं। पूज्य अमोलक ऋषि जी म., आचार्य श्री आत्माराम जी म. एवं आचार्य श्री घासीलाल जी म. द्वारा सम्पादित अनुदित आगमों का भी यथावश्यक उपयोग किया है।
मैं उक्त आगमों के सम्पादक विद्वानों व श्रद्धेय मुनिवरों के प्रति आभारी हूँ। प्रकाशन संस्थाएँ भी उपकारक हैं। उनका सहयोग कृतज्ञ भाव से स्वीकारना मेरा कर्तव्य है। ___पं. अमृतलाल मोहनलाल भोजक, अहमदाबाद वाले जो अनेक आगम ग्रन्थों के सम्पादक हैं उन्होंने इस ग्रन्थ के प्राकृत शीर्षक तथा पं. शोभाचन्द जी भारिल्ल ब्यावर, पं. मोहनलाल जी मेहता, पूना तथा लक्ष्मणभाई भोजक आदि का भी मूल पाठ संशोधन अनुवाद लेखन आदि में सहयोग देकर कार्य सफल करवाया है अतः मैं इनका आभारी हूँ।
जैन आगम तथा संस्कृत-प्राकृत भाषा के विद्वान् डॉ. धर्मचन्द जी जैन ने प्रत्येक विषय का आमुख लिखने का उत्तरदायित्व स्वीकार किया और सुन्दर रूप में सम्पन्न किया है। उनका भी यह सहयोग स्मरणीय रहेगा।
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