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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
तैसें कहै धर्मसीह याही वात राति दीह, -
मूरख कुसीख दे के युही वैन खोयी है ।४८) लंक कलंक कुवंक लगाइ है, रावन की रिधि जावनहारी। नीर भर्यो हरिचंद नरिदं हि, कंस को वंश गयो निरधारी। मुंज पर्यो दुख पुंज के कुंज, गयो सब राज भयो है भिखारी। मीनरू मेख कहै ध्रम देख पैं,
कर्म की रेख टरै नहीं टारी ।४६। विनय विनु ज्ञानकी प्राप्ति नाहीं रू, ज्ञान बिना नहीं ध्यान कही कौं। ध्यान विना नहीं मोक्ष जगत में, मोक्ष बिना नहीं सुख सही कौं। तातें विनय ही धरौ निस दीह, करौ सफली नरदेह लही को। यार ही वार कहै धर्मसी अब,
मान रे मान तु मेरी कही कौ ॥५०॥ शील ते लील लहै नर लोक में, शील तैं जाय सबै दुख दूरै । शील तें आपइ ईलति भाजत, शील सदा सुख सम्पति पूरै । कोरि कलंक मिटे कुल कुल के, कलि में बहु कीरति होइ सनूरैं। सार यहै धर्मसीउ कहै भैया,
शील ही तैं सुर होत हजूरै ।। ५१ ॥ ख्याल खलक में देखो सनिसर, तात सूरिज सो दुन्जन ताइ । वाप निसापति ही सौं टरै नहीं, बुद्ध विरुद्ध धरै है सदाइ। केसव को सुत काम कहावत, तात सुनाहि टर्यो दुखदाइ । मानस की धर्मसीह कहा कहैं,
देवहुं के घर माहि लराइ ॥५२॥