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१६२ धर्मवद्धन ग्रन्थावली
नेमि राजिमती स्तवन राजुल कहै सजनी सुनो रे लाल
रजनी केम विहाय हे सहेली। अरज करी आणौ हहा रे लाल,
साहिवियौ समझाय हे सहेली ॥२॥ मोहन नेमि मिलाय दे रे लाल,
नेह नवी न खमाय हे सहेली। दिन पिण जाता दोहिलौ रे लाल,
जमवारो किम जाय हे सहेली ॥२ मोहन ।। इक खिण खिण प्रीतम पखे रे लाल,
वरस समान विहाय हे सहेली। पाणी के विरहै पड्या रे लाल,
मछली जेम मुरमाय हे सहेली ॥३ मो० ॥ चकवी निस पिउ सु चहै रे लाल,
त्युमुम चित्त तलफाय हे सहेली। कोडि विरख तज कोइली रे लाल,
आवा डाल उन्हाय हे सहेली ॥ ४ मो० ॥ अधिको विरही अंग मे रे लाल,
ते किम दूरे थाय हे सहेली।। जमवारी जलमे वसै रे लाल,
चकमवि अगन उल्हाय हे सहेली ॥५ मो० ॥ कंत विणा कामिनी तणा रे लाल,
भूषण दुषण प्राय हे सहेली !