Book Title: Dharmvarddhan Granthavali
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Sadul Rajasthani Research Institute Bikaner

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Page 434
________________ चतुर्विंशतिजिनस्तवनम् (इन्द्रवज्राछन्दः) स्वस्तिश्रिये श्री ऋपभादि देवं, निर्दभदेवं जिनदेवदेवं, चारुप्रकाशं किल मारुदेवं, स्तौमीह सम्पत्तिलतैकदेव ॥१॥ (तोटकछन्दः) अमरासुर पुस्पशुपक्षिकृत-मदवारनिवारक ईश जितः, भवता मदनोऽपि मदौघयुतःप्रवदन्तिबुधा अजितं हि ततः ॥२॥ (वशस्थ) लसद्यशः पूरितसदिशं भवंत एतमर्चन्तु जनाश्च शंभवं । जिनं सदिक्ष्वाकु कुलाब्जसंभवं, स्फुरत्तपोधाम वितीर्णसभव ।। (द्रुतविलम्बित) जिनमहं प्रणमाम्यभिनन्दनं, सुभगसंवरभूपतिनन्दनम् । सकलसद्गुणपादपनन्दनं, जिनवरं जनलोचननन्दनम् ।।४।। (तोटक) त्रिजगत्पतिरेषजिनः सुमति वितनोतु मतिं किल मे सुमतिः। शुभबोधपयोधिरनेकनुतिः, क्रमणधु तिरंजितदेवपतिः ॥१॥

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