Book Title: Dharmvarddhan Granthavali
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Sadul Rajasthani Research Institute Bikaner

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Page 423
________________ ३४२ धर्मवद्धन ग्रन्थावली भगवञ्चरणदर्शने फलाधिक्यमाह याहक सुखं भवति ते चरणेऽत्र दृष्टे ताहक परभुवदनेऽपि न देह भाजाम् । प्राप्ते यथा सुरमणौ भवति प्रमोदो नैव तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ॥२०॥ भक्तो भगवत्सेवा प्रार्थयन्नाह एवं प्रसीद जिन! येन सदा भवेऽत्र त्वच्छासनं लगति में सुमनोहरं च। त्वत्सेवको भवति यः स जनो मदीयं कश्चन मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि ॥२|| जिनस्य भामण्डलम भामण्डलं जिन | चतुर्मुखदिक्चतुष्के तुल्यं चकासदवलोक्य सभा व्यमृक्षत् । सूयं समा अपि दिशो जनयन्ति किंवा प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदशुजालम् ॥ २२ ।। लोकैर्यः शिवः शिव इति ध्यायते स भगवानेवेत्याह शम्भुगिरीश इह दिग्वसनः स्वयम्भू __ मृत्युञ्जयस्त्वमसि नाथ महादिदेव । तेनाम्बिका निजकलत्रमकारि तन् त्वन्नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र | पन्थाः ॥ २३ ॥

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