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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली द्रव्यत भावत दोड, पूजा विविध परै री। हित करि करता होड, समक्ति शुद्ध तर री ।।५।। हंत धरी नन माहि, मूरत जेह नमै री। लाधो नर भव लाह, भूला अवर रुमे री ॥ ६॥ सानिध प्रभु सुविलास, लीला अधिक है री। विजयहरप जसवास, कवि 'धर्मसीह करी ॥ ७ ॥
श्री मगसी पार्श्वनाथ स्तवन ढाल-अदरजीव क्षमा गुण
- भवियण भाव धरी ने भेटो, नगसीपुर महाराज जी। - जेहनो मन सुद्ध नाम जपता, सहीय मिले सिवसाज जी भ० ॥ त्रिभुवन माहे ए जिन तारण, वारण दुख वन चन्हिजी आपण कर जे जिनवर अरच, धरणी ते नर धन्न जी । भ०।२। पाये अवर सुरा ने पाड्या, मदन महामणिमत्थजी । तिण ने पिण जिण खिण मे जीत्या, सहु मे ए समरत्थ जी।भ०३। सोवन सिंहासण ऊपरि सोहे, श्याम वरण तनु मारजी। गुहिर हेम गिरू परि गाजतो, जाणे करि जलधार जी । भ०।४। अवर देव सेवा तजि अलगी, पूजी नित प्रति पास जी।। भव दल सगला दृरे भांजी, विलसौ मुक्ति विलास जो भ०१५॥ आखें दिन सुर गुर गुण गावै, आवें नहीं तोइ अंत जी । कर भरि नीरसमुद्र थी काव्या, जलनिधि ओछ न जतजी भि। - नवनिधि थाय प्रभु ने नाम, विजयहरप विलसंत जी। . धर्मसीह नित आजा धारइ, अमल मने एकंत ज।। भ० । ७।