________________
शीलरास
ढाल-हु बलिहारी जादवा, ए देशी शील रतन जतने धरो, खंडी ने मत' आणो खोड कि । भूपण निरदृण्ण भलौ, होइ' नहीं कोइ इयरी जोड कि शशी. शील रचे मन शुद्ध स, परहा तेह' पखाले पाप कि। कुल नैं पिण निरमल करै, ओलखीयौ तिण आपो आप कि ।२। सुकृत तिण वलि संचीयौ, सहु जग मे पामै सोभाग कि। दुरगति दुख दूरे दलै, अइओ एहना विरूद अथाग कि ।३। शी० मुशकल करमे मोहनी, वार व्रता मा दुष्कर बभ कि । करणे जीह मन त्रिकरणे, दमणा ए दोहिला निरदभ कि ।४।शी. पर त्रिय संगत पाड़ई, सत्तम व्यसन कहीजे सोइ कि । उडी मति आलोचज्यो, हाणि घरे पर' हासौ होइ कि ।। शी. मेरू जिता दुःख मानिय, सुख तौ मधु ना बिंदु समान कि । सुरगुरू विद्या (धर) सारिखा, मानिस तो बैंसीस विमान कि है मत विपयारस माचज्यौ, वाचेज्यौ एहवा गुरू बैंण कि । दूह्वी नै हित दाखवै, साचा तेह कहीजै सैण कि ॥७॥ शी. विपय तणा फल विप समा, ए वेऊ नही सम अधिकार कि । विप इक वेला दुख दीय, विषय अनंती वार विचार कि ॥८॥ पुन्य नरभव पामियौ, भरम्या विपय म राची भोल कि। काग ऊडावण कारणे, नाखौ मत थे रतन निटोल कि ।।। शी.
१ मन, २ हुवै, ३ होडि, ४ होए, ५ वलि, ६ जिहा ।