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श्रीमती चौढालिया
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सेठ जरै परदेशे जाय, प्रोहित नै घर दीयो भोलाय, जेहवो राख हेत सदीव, देह दोय जाण इक जीव, ६ एक दिन श्रीदत्त सेठ विचार, परदेशे चाल्यो व्यापार, तेड़ी प्रोहित ने कहै तेह, तुम सारु छ माहरो गेह, ७ घर की घणी भोलावण दीध, सेठ तिहा थी कीधी सीध, ग्रोहित आवै कर सभाल, को न सके कर बाको वाल, ८ सुखे रहे नारि श्रीमति, पाले शील सदा शुभमति प्रोहित दीठी रूप अमोल, कहिवा लागो एहवा बोल, ह हुं प्रोहित माहरो कायदो, मोसु मिल ज्यु हुवे फायदो, तुम प्रीतम जे माहरो मित्त, तु हिवे कोइ न मेले चित्त, १० श्रीमति उत्तर आप्यो सही, तमने एहवो करवो नही, मोटा ते इम न करै मूल, सा (य) र थिकी कीम उडे धूड, ११ दिवी भोलावण तुम नै घणी, प्रदेशे चाल्यौ मुझ धणी, घर हुंती किम उठे धाड, चीभडला किम खायै वाड़, १२ प्रोहित कहै मुझ वचन उवेख, धेठि होड सहि करें दंप, हिवे ताहरौ घर जातो देख, इण बात मे मीन न मेख, १३ दूहा-श्रीमति मने जाण्यो सही, खिणि टालु एक वार,
पहिलै पोहरै आवजो, रात गया ततकाल, १ सतोष्यो प्रोहित वचन, निज घर बैठो आय, शील राखण ने श्रीमती, एहवी करें उपाय २
ढाल २–अलबेला नो कह्यो जाय कोटवाल नै रे लालतू छै पुर रुखवाल सुविवेकी रे प्रोहित की मत पातकी रे लाल जोरे करेय जंजाल स० १