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लोद्रवा पार्श्व स्तवन च्यार प्रासाद चिहुं दिशि राजै, विच मे एक विराजे । कोरणी झीणी केम कहाजे, पेख्या मन पतियाजै ॥ ५ ॥ रचना पाच अणुत्तर रयणे, गमविण ऊ ची गयणे । विधि साभलता जे गुरु वयणे, निरखी तेहिज नयणे ॥६॥ अष्टापद जे सुणता आगी, सो विधि दीठी सागी । त्रिगडो देखि मिथ्यामति त्यागी, जिन धर्म महिमा जागी ।। जिन प्रतिमा जिन हीज सरूपी, पौतै जिनज प्रम्पी । सेवे ते शुद्ध समकित रूपी, अज्ञानी ए उथूपी ॥ ८ ॥ अधिकै भाव यात्री आवै, गुण जिनवर ना गावै । रागे बहु विधि पूज रचावै, प्रभु सानिध सुख पावै ॥ ६ ॥ गावते गीत मन गमती, राग धरम ने रमती। नर नारी नी टोली नमती, भावधरी छ भमती ।। १० ।। प्रशोभा जेसलमेर सदाइ, श्री खरतर सुखदाई । करणी जिर्णोद्धार कराइ, संघपति थिरू सवाई ॥ ११ ॥ कलशः-सवत गुण युग तुरग धरणी चंत्र वदि छठि दीस ए। श्रीसघ श्री जिनचन्द सानिध, सफल यात्रा जगीस ए॥
भु पास नामै आस पामैं, जपे जे जस जीह ए । गुरू विजयहरप सुसीस पाठक, कहै श्री धर्मसीह ए ॥ १२ ॥