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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
एका रै धन मिल, मोटा थल मारू हो । एक एकही टंक न, अन्न आणे उधारू हो । क०।२। मोटा माणस इक मुदै, एक काजर कारू हो । के नीरोगी काय के, नित रीव नारू हो । क०।३। दौलति लहीये दान, सील सद्गति सारू हो। जागे तख की जाम की, उड जाय दारू हो । क०।४। भावना मन शुद्ध भाविय, सहु बात सुधारू हो। धन धर्म-सील जिके घरे, ते भव जल तारू हो । क०।५।
( १४ )
राग-नट्ट
नट बाजी री नट बाजी, संसार सवही नट बाजी। अपने स्वार्थ कितने उजरत, रस लुब्धो देखन राजी । स०।१। छिकरी ककरी के करत रुपये, वह कृढत काठ को बाजी। पख ते तुरत ही करत परेवा, सवही कहत हाजी हाजी सवार। जानी कहै क्या देखे गमारा, सवहीभगल विद्या साजी। मगन भयो धर्मसीख न मानत.
जो मन राजीतो क्या करे काजी । स०।।
गा-तेहागडो ठग ज्यु इहु धरियाल ठगे। घरि घरि जातु है रहट घरी ज्यु लेखेन कोड लगें।। ठग ज्युः ।