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प्रस्ताविक विविध संग्रह १३३ साहिब के नाम धर्मसील गह्यो एक टेक,
साहिवीन भावे ताकुसाहिवी फकीरी है ।।१।। मन के महल मांमि समता प्रिया के सग,
अनुभौ के अंग रंग सुखनि की सीरी है। ममता न मोह द्रोह रमता है आपा राम,
__ ज्ञान गुन कलाधारीध्यान दशा धीरी है। काहू की न सक वंक तेसो राउ राना रक,
सवही कु मान सम कुंजर सुकीरी है। मदिर रुचे न जाहि कंदर को वास ताहि,
साहिबी न भाव ताकुसाहिबी फकीरी है ॥२॥
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समस्या-थारी मे यु ठहरात न पारौ । दूर सौ दौरि मिलै छिन मे, छिन मैं गहि लेत है एक किनारी। भौर से खात फैलात चहुं दिसि, नकु अट नहीं होतनि नारी। एक न ठौर कही ठहरात, ग्रह्यो नहीं आवत हाथ अतारौ । यु तृष्णामैं भमै चित्त चंचल, थाली मे ज्यु ठहरात न पारौ ॥१॥ मैं हर वीरज धीरज कारण, गौरी को प्राणनि होते पियारी। मैं कियौ कारितिकेय कुमार, कर उपगार'स धातु सधारी। कासी में होडगी हासी हमारि, निकारि बतातलि पीसही डारी । 'त्रिधातु त्रिकूट विजाती मैना रहु, थारी मैं यु ठहरत पारौ ॥२॥