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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
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अक्ख दीयौ पद ऊंच, पीड द्य तोइ पनुती ।। धरै उत्तम नर धर्म, पापिन तप पर हुती । प०१४२।
यमराज फोजा मैं मौजा फिर, गाहण गढा गडद । फुके काल फणिंद री, उडि गया नर इन्द । उडि गया नर इन्द, चंद दिणद चकीसर । साथ न को धर्मसीह, कित वाल्हा गया वीसर । सगला तालगि सूर, जम्म आ% नहीं औ जा । है चोटी पर हाथ, मान मत खोटी मौजां । फौजा०४३।
मिष्ट वचन बहु आदर सू बोलिये, वार मीठा वैण । धन विण लागा धर्मसी, सगला ही है सैण । सगला ही है सैण, वैण अमृत वदीजै । आदर दीजे अधिक, कदे मनि गर्व न कीजै । इणा वातै आपणा, सैंण हुइ सोभ वदै सहु । मानै निसचे मीत, बोल मीठो गुण छै बहु । वहु० ४४।
भारी कर्मा भारी करमा दुरभवी, जग मे जे छै जीव । सीख न मानें सर्वथा, सहज मिट न सढीव । सहज मिटै न सदीव, टेव श्री जाइ न टलीयै । स्वान पुछि न है समी, नित भरि राखौ नलीये । कासुह्र बहु कह्या, वर्दै नहीं कदे विसरमा । -सुगुरू तणी धर्म सीख, कर नहीं भारी करमा । भा० १४५॥