Book Title: Dharmshiksha Prakaranam
Author(s): Vinaysagar
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 9
________________ आमुखम - II सूचित किये हैं। जहाँ मूलस्थान नहीं मिला या नहीं खोज पाया वहाँ ऐसे [ ] कोष्ठक रखे हैं। पढ़ने वालों को जब प्राप्त हो तब वह रिक्त स्थान को पूरा कर दें। टीकाकार जिनपाल की विद्वत्ता भी अप्रतिम है। उन्होंने अनेक व्याकरण, अलंकार, प्राचीन धर्मशास्त्रों के साक्षिपाठ दिये हैं। उनके लिए जहाँ विवेचन की आवश्यकता हो वहाँ उन पाठों की टीका मूलग्रन्थ से देख लें। मम्मट के काव्यप्रकाश से एवं रुद्रट के काव्यालंकार से उपाध्याय श्री जिनपाल ने टीका में बहुत साक्षिपाठ उद्धृत किये हैं, सामान्यतया उनका अर्थ समझना कठिन है, उनकी टीका ही देखनी पड़ती है। टीका लम्बी होने से परिशिष्ट में देना भी मुश्किल था, अत: जिज्ञासु अभ्यासियों को उन ग्रन्थों की टीका ही देख लेना उपयुक्त है। अलंकारों का वर्णन भी काव्यप्रकाश एवं रुद्रट के काव्यालंकार आदि से समझ लेना चाहिए। __व्याकरण में कभी सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन से, कभी पाणिनि से कभी कातन्त्रव्याकरण से पाठ उद्धृत किये हैं। कुछ का मूलस्थान का पता ही नहीं लगा। बुद्धिसागर व्याकरण प्रकाशित नहीं हुआ है, सम्भव है उसके भी उद्धरण हों। ___ मेरे विनीतशिष्य मुनि धर्मचन्द्रविजयजी ने सूक्ष्मता से सभी प्रूफों को पढ़ कर मुझे बहुत सहायता की है और अन्य शिष्यवर्ग में मुनि पुण्डरीकरत्नविजयजी, मुनि धर्मघोषविजयजी एवं मुनि महाविदेहविजयजी ने भिन्न-भिन्न रूप में बहुत सहायता की है इसलिये इनको बहुत-बहुत धन्यवाद। ___ मेरी पूज्य माता शतवर्षाधिकायु साध्वीजी श्रीमनोहरश्रीजी महाराज की प्रशिष्या, साध्वीजी सूर्यप्रभाश्रीजी की शिष्या साध्वीजी जिनेन्द्रप्रभाश्रीजी ने भी प्रूफ पढकर महत्त्व के सूचन किये हैं इसलिये इनको भी मेरा धन्यवाद । देवगुरुकृपा से प्रेरित होकर जिस स्वरूप में यह ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है उसको वाचकवर्ग पढ़ें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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