Book Title: Dhammapada 03
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 14
________________ पुराने संस्कारों को चूर-चूर और खंडित होता हुआ देखता है। ओशो जैसे ऋषि की वाणी को आप अपनी जानी-मानी साहित्यिक विधाओं में बांधकर अपने आलोचकत्व को प्रतिष्ठित करना चाहेंगे तो चूक जाएंगे। ऋषि की वाणी के छंद ने यदि आपको आंदोलित नहीं किया और आपने समझा कि यह मेरे 'साहित्य' के ढांचे में फिट नहीं बैठता तो साहित्य का दुर्भाग्य कहा जाएगा। ऋषि तो कविता के क्षेत्र को भी अतिक्रांत कर जाता है। और आलोचक है कि साहित्यिकता को लकड़ी और पत्थर को नापने वाले फीते से नापकर परखना चाहता है। ओशो स्वयं प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। कहते हैं: जब ऋषि बोलता है तो बोलता नहीं, वह भी गाता है। चाहे तुम्हारे गाने के ढांचे में उसका गाना बैठता हो, न बैठता हो। चाहे वह तुम्हारे मात्रा-छंद का नियम मानता हो, न मानता हो। तुम्हारे व्याकरण और भाषा के सूत्र उपयोग करता हो, न करता हो। लेकिन जब भी कोई ऋषि बोलता है, गाता है। जब चलता है, चलता नहीं, नाचता है। तुम्हें दिखाई पड़ता हो, न पड़ता हो, क्योंकि तुम्हारी आंख पर अभी मन का पर्दा है। जब भी कोई ऋषि बोलता है, तो उसका शब्द-शब्द छंद-बद्ध है। यह छंद-बद्धता भाषा की नहीं है, अंतर-अनुभव की है...कवि अपने मन के झीने पर्दे से सत्य को देखता है। वह झीना पर्दा सत्य पर हावी हो जाता है। लाओ, उसे भी रख दें उठाकर शबे-विसाल हायल जो इक ख़फ़ीफ़ सा पर्दा नज़र का है जिस दिन कवि उस झीने पर्दे को हटा देता है, उसी दिन वह ऋषि हो जाता ओशो की प्रवचन-शैली संसार के साहित्य में अद्वितीय है। मैं बहुत सोच. समझकर यह वाक्य लिख रहा हूं कि ओशो की प्रवचन-शैली संसार के साहित्य में अद्वितीय है। इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि ओशो ने मानव-संस्कृति के श्रेष्ठतम साहित्य का, दर्शन और विचारों का, तर्क और तर्कातीत अनुभूतियों का अध्ययन किया है। ओशो ने मानव चेतना के विकास के हर पहलू को उजागर किया। कृष्ण, शिव, महावीर, बुद्ध, शांडिल्य, नारद, जीसस के साथ ही साथ भारतीय अध्यात्म आकाश के अनेक संतों-आदि शंकराचार्य, कबीर, नानक, मलूकदास, रैदास, धरमदास, मीरा, आदि पर उनके हजारों प्रवचन उपलब्ध हैं। जीवन का ऐसा कोई भी आयाम नहीं है जो उनके प्रवचनों से अस्पर्शित रहा हो। योग, तंत्र, ताओ, झेन,

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