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न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचनं । अवेरेन च सम्मन्ति एस धम्मो सनंतनो।।
पाली भाषा (जन भाषा) में उच्चरित भगवान बुद्ध की वाणी को पंडितों के लिए संस्कृत रूप दिया गया :
न हि वैरेण वैराणि शाम्यन्तीह कदाचन । अवैरेण च शाम्यन्ति एष धर्मः सनातनः ।।
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वैसे वैर कभी शांत नहीं होते । अवैर (मैत्री) से ही वैर शांत होते हैं। यही सदा का नियम है, धर्म है ।
बुद्ध ने जन भाषा के छंद में जो गुंथन किया, वह एक प्रकार की 'गीता' है, गीतात्मक रचना, जिसे 'गाथा' कहते हैं ।
आज की लोकभाषा में गीत की समस्त चारुता और लय की संपूर्ण रमणीयता में हमारे युग के जिस बुद्ध ने, ओशो ने, धम्मपद के चिंतन को ललित गद्य में विस्तार दिया, उसका स्मरण उसी रूप में होना चाहिए
न तस्य भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ।
वह जो भगवान हैं, जो अरहत हैं, श्रेष्ठोत्तर हैं, जिन्होंने स्वयं संबोधि प्राप्त कर ली, जो दूसरों को बोध देते, हैं, नमस्कार है उन्हें ।
धम्मपद की गाथाओं की इन प्रवचनों में कोई टीका नहीं है, व्याख्या नहीं है, किंतु गाथाओं में जिस सत्य का, लोकहित के जिन तत्वों का, व्यक्ति के आध्यात्मिक सोपानों पर आरोहण का जो आदेश - उपदेश है, उसका ओशो की अपनी अनुभूति, अपने तत्वदर्शन और चिंतन का नितांत निजी प्रतिपादन है।
धम्मपद की गाथाएं तो सूत्र हैं जिनके अर्थ को ओशो ने अपनी अनुभूति की अभिव्यक्ति से जीवंत बनाया है । आप चाहें तो कह लें कि बुद्ध के धर्म की सनातनता को पुनर्जीवित किया गया है। जो सत्य है और सनातन है, वह जब अपने ध्यान से, अपने यज्ञ की आहुति में से तप-तपाकर, निखरकर, उद्भूत होता है, तब वह पुनर्जन्म नहीं होता, वह किसी नए बुद्ध की नयी साक्षी का नया जन्म होता है। इसलिए प्राचीनता के बंधन टूट जाते हैं। भाषा के नए छंद निर्मित होते हैं। वह ऋषि की वाणी होती है। ऋषि कभी कोई तत्व उधार नहीं लेता, न भाषा और छंद की परंपरा से बद्ध होता है। वह तो द्रष्टा है। उसकी वाणी जितनी तेजस्विता प्रगट करती है, उसका मौन उससे भी कहीं अधिक मुखर होता है, प्रभावक होता है और