Book Title: Devdravya Sambandhi Mere Vichar
Author(s): Dharmsuri
Publisher: Mumukshu

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Page 44
________________ ( 36 ) . संक्षेप मैं कहे तो-जिस समय में मंदिरों वगैरह के रक्षा के साधन पर्याप्त नहीं थे, उस समय बोलियों के द्रव्य को देव द्रव्य में ले जाने का श्री संघ ने जो निर्णय किया था वह उचित ही था, परन्तु अब बोलियों के द्रव्य को साधारण खाते में ले जाने का गाँव-गाँव और नगर-नगर के श्री संघों को निर्णय कर लेना चाहिए। चूंकि एक ही क्षेत्र में जरूरत से ज्यादा पानी डालते जाना और अन्यान्य क्षेत्रों को बिलकुल ही शुष्क ( सुखे ) रखना, इस बात (कार्य) को कोई भी बुद्धिमान् व्यक्ति अच्छा नहीं मानेगा। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि जो इस बात को समझने पर भी साधारण खाते में नहीं लेजाने का कदाग्रह रखते हैं यह उनका देवद्रव्य पर मिथ्या मोह ही है अथवा साधारण की अपेक्षा देवद्रव्य की अधिक उत्कृष्टता समझने का ही परिणाम ज्ञात होता है। परन्तु वस्तुतः ऐसा कुछ भी नहीं है। शास्त्रकारों ने तो देवद्रव्य और साधारण द्रव्य की महत्ता एक समान ही बतलाई है। ऐसा नही कि देवद्रव्य के भक्षण से तो, पाप लगता है और साधारण द्रब्य के भक्षण से पाप न लगता हो / देखिएं संबोध सप्तति के पृष्ठ 52 पर शास्त्रकार स्वयमेव बता रहे हैं-"देव द्रव्यवत्साधारणद्रव्यमपि वर्धनीयमेव, देव द्रव्यसाधारणद्रव्ययोहि वर्धनादौ तुल्यत्वश्र तेः / "

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