________________ भंगकारक नहीं बनते हैं ? इसका विचार वाचकवृन्द स्वयं करें। __ वस्तुतः ऐसा कुछ नहीं हैं। बोली जैसे रिवाजों में परिवर्तन करने से आमदनी के भंगकर्ता नहीं बन सकते हैं / जो इन रिवाजों के परिवर्तन में आमदनी के नुकशान का पाप बताते हैं, वे 'द्रव्यसप्तति' की इस गाथा का आश्रम लेते हैं। "आयाणं जो भंजइ पड़िवन्नधणं न देइ देवस्य / गरहंतं चोविक्खइ सोवि हु परिभमइ संसारे // 1 // परन्तु इस गाथा का वास्तविक अर्थ क्या है ? वह देखते हैं। सर्वप्रथम शब्दार्थ देखिएआयाणं == आदाण (किराये)। उविक्रवइ = उपेक्षा करता को। जो जो सोवि = वह भी। भंजइ तोड़ता है। हु= निश्चय पडिवन्नधणं = स्वीकृत परिभमइ - परिभ्रमण धन को। करता है। न= नही। संसारे= संसार में। देइ=देता है। देवस्य = देव का / गरहंत-दूषितकत्र्ता को। च - और