________________ ( 74 ) वैसे तो देवद्रव्य की वृद्धि हेतु सर्वोत्कृष्ट और सर्वमान्य उपाय अपूर्व अपूर्व वस्तुओं का अर्पण करना ही है। पहले हम . कह चुके हैं कि पन्द्रह कर्मादान और * कुव्यापार का त्याग कर सद्व्यवहार द्वारा ही देवद्रव्य की वृद्धि करना चाहिए परन्तु श्राद्धविधिकार के अनुसार कई आचार्यों का ऐसा भी मत है कि श्रावकों के अतिरिक्त अन्य किसी के पास से बहुमूल्य आभूषण को ग्रहण कर और ब्याज पर देकर भी देवद्रव्य की वृद्धि करना उचित है। देखिए 'श्राद्धविधि' ग्रन्थ के पृष्ठ 74 में क्या कहा है ? __"केचित्तु श्राद्धव्यतिरिक्तेभ्यः समधिकग्रहणकं गृहीत्वा कलान्तरेणापि तद्वद्धिरुचितैवेत्याहुः / " इसका अर्थ ऊपर बता दिया गया है। इसी प्रकार का पाठ 'आत्म-प्रबोध' ग्रन्थ के पृष्ठ 71 में भी है। अन्य प्रकार से 'आत्मप्रबोध' ग्रन्थ के पृष्ठ 68 में कहा गया है- 'देव द्रव्यं व्याजेन न ग्राहयं' देवद्रव्य व्याज से ग्रहण नहीं करना चाहिए। यह क्या बता रहा है ? यही कि देवद्रव्य ब्याज पर नहीं देना चाहिए। इस पर भी यदि देना ही पड़े, तो कतिपय आचार्यों के मतानुसार श्रावक के अतिरिक्त दूसरे को बहुमूल्य आभूषण रखकर ब्याज पर देना चाहिये। इस