________________ ( 76 .) बोलियों और इसी प्रकार के कई अन्य साधनों द्वारा देवद्रव्य की वृद्धि करके नये-नये भवनों का निर्माण करना, सुवर्ण-चाँदी के व्यापार करना, मीलों में रुपये देना, सहस्रों के व्यय से बड़ी-बड़ी पेढ़ियाँ चलाना और कोर्टो में केस लड़कर हजारों बल्कि लाखों रुपये वकीलों को खिलाया जाता है. परन्तु उपयुक्त कथनानुसार हजारों मन्दिरों के जीर्णोद्धार की तरफ किसी का ध्यान भी नहीं जाता है। यह देवद्रव्य की वृद्धि का दुरुपयोग नहीं तो और क्या है ? देवद्रव्योपरि असाधारण मोह नहीं तो और क्या है ? मैं एक बार कह चुका हूँ कि देवद्रव्य की वृद्धि देवमन्दिरों और जिनमूर्तियों की साधन - सामग्री हेतु होनी चाहिये किन्तु यदि उस हेतु के लिये न हो तो फिर उस वृद्धि का प्रयोजन ही क्या है ? वृद्धि भी उचित रीति से होनी चाहिये, भगवान के आदेशानुसार ही होनी चाहिये। देवद्रव्य की वृद्धि हेतु इस पत्रिका में बताये अनुसार शास्त्रकारों ने तीर्थङ्करत्व के फल को दर्शाया है किन्तु जिनाज्ञारहित - मोहयुक्त रीति से देवद्रव्य की वृद्धि का शास्त्रकार भी स्पष्टतः मना करते हैं अपितु आज्ञाहित वृद्धिकारक को भवसमुद्र में डूबने वाला भी बताया गया है। देखिए 'आत्मप्रबोध' ग्रन्थ के पृष्ठ 71. पर कहा है"जिणवरआणारहिअं, वद्धारतावि केवि जिणदव्वं /