________________ ( 112 ) "जिनपवयणवुड्ढिकरं पभावगं नाणदंसणगुणाणं / रखंतो जिणदव्वं परित्तसंसारिओ होई" // यह 'उपदेश पद' की गाथा 17 की वृत्ति मे लिखा है कि "जिनद्रव्ये हि रक्षिते सति तद्विनियोगेन चैत्यकार्येषु प्रसभमुत्सर्पसु सत्सु भविनो भव्याः समुद्गतीदग्रहर्षा निर्वाणावन्ध्यकारणबोधि-बीजादिगुणभाजो भवन्ति" - अर्थात्-देवद्रव्य के रक्षण से चैत्य (मन्दिर) के कार्य सुचारुरूपसे सम्पन्न होते हैं और इस कारण भव्य प्राणी महान् हर्ष की एवं मोक्ष के प्रबलकारण बोधिबीजादि गुणों की प्राप्ति करते हैं। देखिये-इसमें 'उत्सर्पत्सु' शब्द का अर्थ क्या है ? बोली बोलने का सम्बन्ध यहाँ चरितार्थ होता है क्या? इस पाठ में स्पष्टतया मालुम पड़ता है कि उत्सप् का अर्थ-'प्रफुल्लित होना' विकसित होना 'प्रसारित होना' ऐसा ही अर्थ होता है परन्तु इसके अतिरिक्त श्री सागरजी का अभिप्रेत अर्थ यहाँ बिल्कुल आदरणीय नहीं है। और भी देखिएँ - श्राद्ध विधि के पृष्ठ 77 पर दी हुई “कर्मसार-पुण्यसार" नामक दो भाईओं की कथा के अन्त में लिखा हुआ है