Book Title: Devdravya Sambandhi Mere Vichar
Author(s): Dharmsuri
Publisher: Mumukshu

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Page 116
________________ ( 111 ) तब फिर ऐसे निरालंबन अर्थात् निराधार अर्थ का आग्रह क्यों रखना चाहिये ? दूसरे महाकाव्य को देखिये ? "ततः शरच्चन्द्रक राभिरामैरुत्सपिभिः प्रांशुमिवांशुजालैः / विभ्रागमानीलरुचं पिशङ्गीर्जटास्तडित्वन्तमिवाम्बुवाहम् // 1 // किरातार्जुनीय तृतीय सर्ग इस श्लोक में "उत्सपिभिः" शब्द का प्रयोग हुआ है। इसका अर्थ टीकाकार ने 'प्रसा, रभिः" ऐसा किया है / 'प्रसारिभिः' 'अर्थात् प्रसारित होते 'अंशु जालै' का विशेषण है अर्थात् प्रसारित होते, ऐसी किरणों के द्वारा ऐसा भावार्थ है। अब देखिए, इसमें भी 'उत्सृप्' का अर्थ 'बोलो बोलना' या 'सस्पर्धा चढ़ावे बोलना' ऐसा अर्थ किया है क्या ? नहीं। ये तो अन्य धर्मानुयायी विद्वानों के ग्रन्थों के उदाहरण देखे, परन्तु जैनग्रन्थों में भी 'उत्सर्पण' का अर्थ श्री सागरजी महाराज के कथनानुसार मिलना असंभव है। स्थाली पुलाक न्याय से उसका भी अवलोकन कर लेते हैं

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