________________ अपने विचारों को लेख द्वारा प्रस्तुत किया कि "देवद्रव्य वस्तु शास्त्रसिद्ध है, परन्तु देवद्रव्य किसे कहना ? यहीं विचारणीय प्रश्न है। "द्रव्यसप्ततिका" वगैरह ग्रन्थों के आधार और अनुभवदृष्टि प्रमाण से, 'देव को समर्पण किया हुआ द्रव्य ही देवद्रव्य कहलाता है।' देवद्रव्य का स्वरूप लक्षण इतना ही पर्याप्त है। इसके अतिरिक्त बोली बोलने की जो रूढि चली आ रही है, उसकी आमदनी का सम्बन्ध किसी निश्चित क्षेत्र के साथ नहीं है। तत्कालीन संयोगो के अनुसार किसी भी क्षेत्र में उस आमदनी का उपयोग किया जा सकता है। इसके लिये वर्तमान समय की परिस्थिति को देखते हुए पूजा, आरती आदि के अवसरों पर बोली जाने वाली बोलियाँ के द्रव्य को साधारण खाते में ले जाना उचित है / इसमें किसी प्रकार का शास्त्रीय दोष प्रतीत नहीं होता है।" इन विचारों के साथ जब श्री विजयधर्मसूरीश्वरजी बाहर आये, तब उनके विरुद्ध श्रीमान् आनंदसागरजी ने 'आचार्यों पंन्यासों, गणियों, और मुनियों द्वारा दर्शाया गया देवद्रव्य संबंधी निर्णय" नामक पेम्पलेट प्रकाशित कराया। इस लेख द्वारा उन्होंने बताया कि पूजा, आरती की बोली की आमदनी देवद्रव्य में ही ले जानी चाहिये, साधारण खाते में नहीं ले जा सकते हैं।