Book Title: Devdravya Sambandhi Mere Vichar
Author(s): Dharmsuri
Publisher: Mumukshu

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Page 110
________________ ( 105 ) भ्रान्ति में डालने वाला है। उस पाठ में बोली बोलने का कहीं नाम ही नहीं है / देखिए वह पाठ "जि नधनस्य-देवद्रव्यस्य वृद्धिर्मालोद्धट्टनेन्द्रमालादिपरिधानपरिधापनिकाधौतिकादिमोचनद्रव्योत्सर्पणपूर्वकारात्रिकविधानादिना।” श्राद्धविधि पृष्ठ 161, इस पाठ का अर्थ, सागरजी महाराज इस प्रकार करते हैं "श्रावकों को देवद्रव्य की वृद्धि हेतु मालोद्घाटन का चढ़ावा, इन्द्रमालादि पहिनने का चढ़ावा तथा पहेरामणी धौतिक वगैरह रखना और द्रव्य की उछामणी पूर्वक आरती आदि के कार्य करने चाहिये।" __अव वाचकवर्ग विचार करेगा कि यह जो अर्थ किया गया है, उसके साथ मूल पाठ का कहाँ तक संबंध हैं। यहाँ हम मूल पाठ के शब्दों के साथ सागरजी द्वारा किये गये ‘अर्थ का मुकाबला करके देखते हैं मूल पाठ के अलग-अलग शब्द और उनका अर्थजिनधनस्य-देवद्रं व्यस्य - देवद्रव्य को वृद्धिः बृद्धि मालोद्धट्टन माला ग्रहण करना इन्द्रमालादिपरिधान इन्द्रमालादि पहिनना। परिधापनिका - पहेरामणी

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