________________ नहीं है, प्रभु-आज्ञा नहीं है / किसी आगम में भी बोली बोलने का विधान नहीं है। ज्ञानभण्डारों में जैसे 45 आगम विद्यमान है वैसे ही पूर्वाचार्यों द्वारा रचित सहस्रग्रन्थ भी विद्यमान है। उनमें से एक भी आगम अथवा प्राचीन ग्रन्थ में देवद्रव्य की वृद्धि-हेतु अथवा किसी भी कार्य के लिए बोली बोलने का विधान दृष्टिगोचर नहीं होता है। यह क्या संकेत दे रहा है / यदि पूजा-आरती इत्यादि कार्यों में बोली बोलने की प्रभुआज्ञा होती तो क्या किसी भी आगम, भाष्य-टीकाचूर्णी अथवा प्राचीन ग्रन्थ में वर्णन नहीं होता ? किन्तु वर्णन नहीं मिलता है इससे यहीं निष्कर्ष निकलता है कि यह रिवाज प्राचीन नहीं है। प्रभुआज्ञा भी नहीं है किन्तु अर्वाचीन ग्रंथों में अथवा जिन ग्रंथों के रचना काल में यह रिवाज प्रचलित हो तो उन-उन ग्रन्थों में इसका उल्लेख मिल भी सकता है इससे यह नहीं कहा जा सकता कि यह रिवाज प्राचीन अथवा शास्त्रीय है। प्रत्येक व्यक्ति यह तो समझ ही सकता है कि जो ग्रंथ जिस काल में रचा गया है उस ग्रंथ में उस समय के प्रचलित रीति-रिवाजों का वर्णन होना स्वाभाविक है। बीसवीं शताब्दि में लिखने वाला व्यक्ति स्वप्न उतारने का तथा उस समय में बोली जाने वाली बोलियों का एवं पारणा आदि की बोली बोलकर उस पर ढके जाने