Book Title: Devdravya Sambandhi Mere Vichar
Author(s): Dharmsuri
Publisher: Mumukshu

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Page 59
________________ शास्त्रकार इस प्रकार से सिर्फ वृद्धि के फल को बताकर ही चुप नहीं रहते हैं, परन्तु उन महापुरुषों ने देवद्रव्य की वृद्धि के मार्ग को भी दर्शाया है। अर्थात् 'वृद्धि किस प्रकार से करनी चाहिए?' यह भी बताया है देखिए-आत्मप्रबोध के पृष्ठ 71 पर___ "वृद्धिरत्र अपूर्वापूर्वव्यप्रक्षेपादिनावसेया। सा च पंचदशकर्मादानकुव्यापारवर्जनसद्व्यहारादिना एव कार्या अविधिना तु तद्विधानं प्रत्युत दोषाय सम्पद्यते।" ___ अर्थात्-देवद्रव्य की वृद्धि अपूर्व-अपूर्व वस्तुओं के प्रक्षेप द्वारा करनी चाहिये और वह भी पन्द्रह कर्मादान और कुव्यापार द्वारा उपार्जित द्रव्य से नहीं, किन्तु सद्व्यवहार (सद्व्यापार) द्वारा ही करनी चाहिए, क्योंकि अविधि से वृद्धि करने पर तो उल्टा दोष लगता है। दर्शनशुद्धि के पृष्ठ 53 पर लिखा है "उचितांशप्रक्षेपादिना कलांतरप्रयोगादिना वा वृद्धिमुपनयन् तीर्थङ्करत्वं लभते जीवः / " उचित भाग को डालने अथवा आभरणादि द्वारा वृद्धि करने वाला जीव तीर्थङ्करत्व की प्राप्ति करता है / धर्मसंग्रह के पृष्ठ 167 पर लिखा है- . "वृद्धिरत्र सम्यग्रक्षणापूर्वाऽपूर्वधनप्रक्षेपादितोऽवसेया। वद्धिरपि कुव्यापारवर्ज सद्व्यवहारादिविधिनैव कार्या।"

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